*रोटी के लिए रूमानी फिल्में लिखनी पड़ीं-
*ये डिब्बा (टेलीविजन) पूरी तहज़ीब को बर्बाद करके रख देगा।-
*उस दिन अगर टैक्सी चलाना सीखता तो फिल्मी दुनिया के चक्कर में नहीं पड़ता।- सगर सरहदी
(एफ. एम. सलीम)
‘कहा जाता है कि मैं रोमांटिक सीन अच्छे लिखता हूँ। चाहे वह फिल्म सिलसिला हो या कभी-कभी। लोग पूछते हैं कि आप इतने रोमांटिक डॉयलॉग कैसे लिख लेते हैं? इसलिए भी शायद कि मैंने शादी नहीं की। घर नहीं बसाया।’ हँसते हुए, यह सब कुछ कह जाते हैं, लेकिन दूसरे ही पल सागर साहब को वो दिन याद आते हैं, जब एक रिप्यूज़ी लड़का नंगे पैर दिल्ली की गलियों में घूम रहा है, फिर अचानक उसे पता चलता है कि उसके वालिद उसकी शादी करना चाहते हैं। रहने के लिए छत है और न दो वक़्त की रोटी का कोई इन्तेज़ाम, फिर वह मुंबई चला आता है। अफ़सानों, कहानियों और ड्रामों से होता हुआ, उसका सफ़र फिल्मों की जानिब मुड़ता है और फिर एक दिन `बाज़ार’ जैसी लाजवाब फिल्म के हिदायतकार के रूप में एक यादगार शख्सियत उभरती है…सागर सरहदी..और तआज्जुब की बात ये है कि चांदनी, दीवाना, कहो न प्यार है जैसी दर्जनभर से ज़्यादा फिल्में लिखने वाले सागर साहब को फिल्मों की सितारों वाली ज़िन्दगी बिल्कुल पसंद नहीं है, उन्हें अपनी कहानियों और ड्रामों वाली दुनिया बड़ी अच्छी लगती है। वो कहते हैं कि `स्टार सिस्टम’ से फिल्म में फ़न और कहानी दोनों की मौत हो जाती है। ड्रामा थिएटर पर कोई हीरो नहीं होता, बल्कि सारा काम हिस्सेदारी के ज़ज़्बे से होता है। वहाँ कोई अमिताभ बच्चन या राजेश खन्ना नहीं होता,.. लेकिन दूसरा पहलू ये है कि थिएटर पैसे नहीं देता।
गंगा सागर तलवार से सागर सरहदी के तौर पर मशहूर हुई इस शख्सियत से यूँ तो कई बार रू ब रू होने का इत्तेफ़ाक हुआ, लेकिन पिछले दिनों जब क़ादिर अली बेग थिएटर फाउण्डेशन की एक त़करीब में मोहम्मद अली बेग के साथ गुप़्तगू सुनीं तो उनकी जिन्दगी के कई पहलू सामने आये। ऐबटाबाद का सरहदी इल़ाका गालिब के शेर, प्रेमचंद की कहानियाँ, दिल्ली की गलियाँ, मुंबई की चकाचौंध और हैदराबाद का `बाज़ार’..इतनी सारी यादों में घिरे सरहदी साहब यह कहते हुए नहीं थकते कि हैदराबाद ने उन्हें बाज़ार की कहानी ही नहीं दी, बल्कि कमर्शियल फिल्मों से हटकर आर्ट फिल्मों के लिए काम करने का हौसला भी दिया। कहने लगे, `रोटी के लिए रूमानी फिल्में लिखनी पड़ीं, यह तो साहिर और इस्मत को भी करना पड़ा था। सच्ची शायरी लिखकर किताबें तो छाप सकते हैं, पर घर नहीं चला सकते। मैं भी कहानियाँ लिखकर 50 रुपये से ज्यादा नहीं कमा सकता था। रसोचता था, दिल्ली में टैक्सी चला लूँ, लेकिन आज तक गेयर डालना नहीं आया। मुझे रोटी कमाने के लिए फिल्मी दुनिया में जाना पड़ा।’
रूमानी मुकालमों (डायलॉग) का ज़िक्र छिड़ा तो बात फिल्म `कभी-कभी’ के उस मुकालिमे की भी हुई….क्या आपने अपनी आँखें देखी हैं, जहाँ देखती हैं, एक नया रिश्ता क़ायम कर देती हैं।..“आँख पर यह मुकालिमा काफी मशहूर हुआ तो बाद में सभी प्रोड्यूसर-डॉयरेक्टर अपनी फिल्मों में आँख पर ही डायलॉग पूछने लगे। सलमा आग़ा की एक फिल्म के लिए कहा..तुम्हारी आँखों में आसमान झांकता है।… इस तरह के मुकालिमों की शर्त पर अगर आगे भी लिखता रहता तो सारी उम्र मुझे `कभी-कभी’ और `िसलसिला’ ही लिखना पड़ता। दिल्ली की गलियों में नंगे पैर घूमने वाले और मुंबई में जद्दोजहद करने वाले एक अफ़साना निगार को सारी उम्र रोमांटिक फिल्में लिखनी पड़तीं तो उसके दिल की हालत का अंदाजा लगाइए क्या होगा? इसलिए मैंने कमर्शियल फिल्में लिखना छोड़ दिया, फिर आपके शहर (हैदराबाद) आया। फिल्म बाज़ार बनाई। बाज़ार ने मुझे 20 साल तक पाला है।’
सागर सरहदी कहते हैं कि स्टार कल्चर के सिनेमा ने कहानी और फन दोनों को खत्म कर सेक्स और तशद्दुद को बढ़ावा दिया है, यही वज्ह है कि शाम बेनेगल जैसी अच्छी फिल्मी-तह़जीब भी यहाँ पनप नहीं पायी।
`भूखे भजन न होवे गोपाला, भगतसिंह की वापसी, ख्याल की दस्तक, राज दरबार, तन्हाई जैसे मशहूर ड्रामे लिखने वाले सागर सरहदी जब ड्रामा और फिल्म का त़काबुल करते हैं तो पाते हैं कि ड्रामा जहाँ ज़िन्दगी की ह़क़ीकतों से क़रीबी तआल़ुक रखता है, वहीं फिल्म तसव्वुरात ऩकली रोमान्स की दुनिया है, शोहरत अच्छी चीज़ नहीं है, स्टार बनाकर उसे असली ज़िन्दगी से दूर कर देती है। `अमिताभ बच्चन या शाहऱुख खान अवाम के दरमियान एक चौराहा भी उबूर नहीं कर सकते। वा सिर्फ तफरीहगाह का शेर बन कर रह जाते हैं, जबकि ड्रामे का फनकार दहाड़ने वाले शेर की तरह काम करता है। यहाँ ा़जिन्दगी की जद्दोजहद है।”
..लेकिन मौजुदा फिल्मी हालात पर दुःख का इज़हार करते हुए वे रुआँसे हो जाते हैं, और कहते हैं, `हम बर्बादी की तरफ़ जा रहे हैं। ये डिब्बा (टेलीविजन) पूरी तहज़ीब को बर्बाद करके रख देगा। हमें अपने आपको बचाना होगा, वरना बाज़ार की तरह चलेंगे तो बर्बाद हो जाएंगे। हम किस दौर में जी रहे हैं, जहाँ अच्छा सिनेमा है और ना अच्छी ज़ुबान, आम-आदमी को खाना नहीं मिलता, जबकि नंगी तस्वीरों से रिसालों में खाना पकाने के तरीके सिखाए जाते हैं। चाहे चमचा हो या जूता उसकी तशहीर के लिए उरियाँ लड़की की ज़रूरत है, ऐसे में अच्छी ज़िन्दगी का तसव्वुर कैसे कर सकते हैं। सोचता हूँ, उस दिन अगर टैक्सी चलाना सीखता तो फिल्मी दुनिया के चक्कर में नहीं पड़ता।’
अपनी ज़बानों ख़ुसूसन उर्दू क़ी गरीबुल वतनी पर सागर साहब बहुत ग़मज़दा हैं, कहते हैं, `मेरी ज़ुबान कोई नहीं बोलता आजकल, इस ज़ुबान को बचाना है, मुझे इसकी बहुत फिक्र होती है। आम आदमी की रोज़ी रोटी और तहज़ीब से इसके रिश्ते को मज़बूत करना होगा।’