सऊदी अरब से भारत की दोस्ती ईरान क्यों है खफ़ा?

सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान भारत का दौरा कर रहे हैं। बिन सलमान पाकिस्तान दौरे के बाद भारत जा रहे हैं। कई जानकारों का कहना है कि सऊदी युवराज ने दौरे के लिए पहले पाकिस्तान को चुना जिससे पता चलता है कि सऊदी अरब की प्राथमिकता में कौन है?

जहां एक ओर भारत और ईरान के बीच सांसकृतिक और सामाजिक दृष्टि से ऐतिहासिक और निस्वार्थ दोस्ती रही है, वहीं सऊदी अरब और पाकिस्तान के मध्य जो संबंध है वह भी बहुत पुराना ऐतिहासिक रहा है। कश्मीर को लेकर तालेबान तक पर सऊदी अरब पाकिस्तान के रुख़ का समर्थन करता रहा है।

पार्स टुडे डॉट कॉम के अनुसार, 2016 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सऊदी का दौरा किया था और ठीक उसके बाद सऊदी अरब ने कश्मीर समस्या के समाधान में कश्मीरियों की स्वायत्ता की वकालत की थी। सऊदी अरब ने ओआईसी की बैठक में यह बात कही थी।

दूसरी तरफ़ ईरान का कहना है कि कश्मीर पर उसका रुख़ पहले की तरह ही है और इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। ईरान का कहना है कि भारत और पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को आपसी बातचीत से हल करें। ईरान का कहना है कि इस मामले में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया है लेकिन इस मुद्दे को भारत और पाकिस्तान आपस में बातचीत करके सुलझाएं।

भारत की विदेश नीति दशकों तक गुटनिरपेक्ष प्रतिबद्धता के साथ रही। शीत युद्ध के दौरान भारत न तो पश्चिमी देशों के गुट में शामिल हुआ था और न ही सोवियत संघ के नेतृत्व वाले गुट में। भारत उन देशों के साथ था जो किसी भी गुट में नहीं थे, इसे कथित रूप से तीसरी दुनिया भी कहा गया है।

अब भी भारत अपनी इसी नीति को बुनियादी तौर पर अपनाए हुए है। आज की तारीख़ में मध्यपूर्व में भारत के जहां एक ओर इस्लामी गणतंत्र ईरान और सऊदी अरब से अच्छे संबंध हैं वहीं अवैध ज़ायोनी शासन के साथ भी अच्छे संबंध हैं।

उधर ईरान और सऊदी अरब के बीच आधुनिक प्रतिद्वंद्विता 1979 में ईरान की इस्लामी क्रांति के ठीक बाद शुरू हुई थी। तब ईरान ने सभी मुस्लिम देशों में राजशाही को हटाने और लोकतंत्र की स्थापना का आह्वान किया था।

ईरान की इस्लामी क्रांति से सऊदी अरब के आले सऊद शासन में डर फैल गया था कि कहीं उनके देश के लोग भी लोकतांत्रिक सरकार की मांग न कर बैठें। तभी 1981 में ईरान की इस्लामी क्रांति के विरोधी देशों ने अमेरिका के नेतृत्व में इराक़ द्वारा ईरान पर 8 वर्षीय युद्ध थोपा और लाखों बेगुनाह ईरानी नागरिकों का ख़ून बहाया।

इस युद्ध में जहां अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने इराक़ की भरपूर मदद की वहीं सऊदी अरब ने भी इराक़ के तत्कालीन तानाशाह सद्दाम का समर्थन किया और ईरानी नागरिकों का ख़ून बहाने में उसकी साहयता की।

दूसरी ओर सीरिया में जारी युद्ध में भी ईरान आरंभ से ही इस देश की क़ानूनी सरकार के राष्ट्रपति बश्शार असद के साथ है, तो सऊदी अरब सीरिया में आम लोगों का नरसंहार करने वाले तकफ़ीरी आतंकियों का लगातार वित्तीय एवं सामरिक समर्थन करता आ रहा है।

इसी बीच 2017 के जून महीने में सऊदी अरब और उसके सहयोगी देशों ने क़तर की नाकाबंदी कर दी। सऊदी ने आरोप लगाया कि क़तर, ईरान की नीतियों में उसकी मदद कर रहा है। इन सभी बातों से बढ़कर एक बात यह है कि सऊदी अरब ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद से अब तक यह नहीं चाहता है कि उसके पड़ोसियों की दोस्ती ईरान से रहे।

भारत और ईरान के बीच मौजूद दोस्ती को समय-समय पर तोड़ने और उसमे दरार ड़ालने के बहुत प्रयास किए गए हैं। अमेरिका से लेकर सऊदी अरब, सभी ने ईरान और भारत की दोस्ती में दरार ड़ालने की भरपूर कोशिशें की हैं।

लेकिन इन दोनों देशों के बीच जो संबंध हैं उनको आज तक कोई भी देश या शासन तोड़ना तो बहुत ही दूर की बात है बल्कि इस दोस्ती के रंग को फीका भी नहीं कर सका है। वर्ष 2014 में भारत का ईरान के साथ व्यापार 16 अरब डॉलर का था।

ओबामा प्रशासन ने ईरान से प्रतिबंध हटा दिए थे और इसी दौरान दोनों देशों के व्यापार में बढ़ोतरी शुरू हो गई थी, लेकिन एक बार फिर ट्रम्प प्रशासन ने सऊदी अरब के इशारे पर ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए और भारत को ईरान से दूर करने का प्रयास किया लेकिन हमेशा की तरह एक बार फिर अमेरिका और सऊदी अरब को मुंह की खानी पड़ी क्योंकि भारत ने यह घोषणा कर दी कि वह ईरान से अपने व्यापार को पहले की तरह जारी रखेगा और किसी भी ऐसे प्रतिबंध को नहीं स्वीकार करेगा जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ की मर्ज़ी न हो।

इस बीच जानकारों का मानना है कि अगर ईरान से भारत के संबंध ख़राब होते हैं तो इस इलाक़े के तेल और गैस का 30 अरब डॉलर का कारोबार बर्बाद हो सकता है।

ज़ाहिर है व्यापार के लिहाज़ से देखें तो फ़ार्स ख़ाड़ी सहयोग परिषद के देशों से भारत के संबंध काफ़ी अहम हैं। फ़ार्स की खाड़ी के देशों में बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी हैं। मध्यपूर्व में कोई टकराव होता है तो इस