सत्यमेव जयते, मगर हिसाब कौन दे ?

By – Wasim Akram Tyagi
लेखक मुस्लिम टूडे मैग्जीन के सहसंपादक हैं

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एक घटना, फिर दूसरी घटना, फिर तीसरी घटना, यहां कोई घटना नहीं बल्कि घटनाओं के खत्म न होने वाले सिलसिले हैं। बम बाद में फटता है पहले टीवी स्क्रीन पर खबर फ्लैश हो जाती है कि मास्टरमाईंड कौन है ? 2006 में मालेगांव के मुस्लिम बहुल इलाके हमीदिया मस्जिद और मुशावरत चौक इलाके में ब्लास्ट होता है, हमेशा की तरह पुलिस वही करती है जो करती आई है। इस मामले में 9 मुसलमानों को गिरफ्तार किया जाता है। अब मुम्बई की एक अदालत ने मालेगांव ब्लास्ट में सभी 9 मुस्लिम आरोपियों को बरी कर दिया है.

malegaon-blasts-2006जो तथाकथित आतंकी रिहा हुऐ हैं उनमें से कईयों ने अपनी जिंदगी के पांच-सात साल तक जेल में बिताये हैं। हर बार की तरह इस बार भी पुलिस की कहानी झूठी है, इस बार भी एटीएस और मीडिया द्वारा किया गया ट्रायल झूठा साबित हुआ है। सवाल वही पुराने वाले हैं कि अब इन नौजवानों की जिंदगियों का हिसाब कौन देगा ? फिर एक बार वही सवाल है कि क्या उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रावाई हो पायेगी जिन्होंने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर कार्रावाई करके इन निर्दोष मुसलमानों को जिंदगी को काल कोठरी में कैद कर दिया था ? यह कैसी पुलिस है जिसकी कार्रावाई की सुईं सिर्फ एक ही तरफ घूमती है ? ये कैसी पुलिसिया कार्रावाई है जो अदालत में टिक ही नहीं पाती ? टीवी, अखबार, बड़े अधिकारियों के बयान किसी भी ब्लास्ट के खुलासे तो ऐसे करते हैं मानो यही अंतिम सत्य है, जो दिखाया और बताया जा रहा है, अगर वह सत्य होता है, अगर वही आतंकी हैं जिन्हें गिरफ्तार किया गया था, फिर वे तथाकथित आतंकी बरी कैसे हो जाते हैं ? 16 मई 2014 को सुप्रिम कोर्ट ने अक्षरधाम बम विस्फोटों के आरोपियों को बरी करते हुऐ कहा था कि तत्कालीन गृह राज्य मंत्रालय ने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर कार्रावाई की थी इसलिये इन नौजवानों को निर्दोष होते हुऐ भी अपनी जिंदगी बेशकीमती 11 साल सलाखों के पीछे गुजारने पड़े। गौरतलब उस वक्त नरेन्दर मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और गृह राज्य मंत्रालय भी उन्हीं के पास था। चूंकि सुप्रिम कोर्ट का फैसला उस दिन आया था जिस नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा ने लोकसभा का चुनाल जीता था। जीत के जश्न में सुप्रिम कोर्ट की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह दब कर रह गई। अक्षरधाम मामले में मास्टरमाइंड बनाये गये मुफ्ती अब्दुल कय्यूम को निचली अदालत ने सजा ऐ मौत की सजा सुनाई थी मगर सुप्रिम कोर्ट ने उन्हें भी बाइज्जत बरी कर दिया। बरी होने के बाद उन्होंने अपनी आप बीती को किताबी शक्ल दी और ‘11 साल सलाखों के पीछे’ नामक किताब लिखी। यह किताब गुजरात राज्य में प्रतिबंधित है।
हो सकता है अब जिन 9 तथाकथित आतंकियों को बाइज्जत बरी किया गया है उनमें से भी कोई अपनी आप बीती लिखे और फिर उसे भी प्रतिबंधित कर दिया जाये। मगर यह सवाल बाद में उससे पहले तो सवाल जिंदगी को पटरी पर लाने भर का है। जिस आतंकी के दंश को इन नौजवानों ने पिछले दस सालों में झेला है क्या वह अदालत के एक मात्र फैसले से साफ हो जायेगा ? यदी आतंकी होने का क्लंक मिट भी जाता है तब भी क्या समाज उन्हें वह इज्जत दे पायेगा जो पहले मिलती थी। ऐसे ही एक निर्दोष ‘आतंकी’ ने बताया था कि अदालत से बाइज्जत बरी होने के बाद भी लोग उससे बात करने में कतराते हैं। वह लोगों के अंदर बैठा हुआ खाकी का खौफ है या फिर समाजिक तौर से किया गया उस व्यक्ति का बहिष्कार जिसे बेकसूर होते हुऐ भी सलाखों के पीछे रहना पड़ा ? जब भी पुलिस द्वारा किसी ‘मास्टरमाइंड’ को गिरफ्तार किया जाता है। उस वक्त मीडिया का रवैय्या कुछ और होता है, मीडिया पुलिस की कहानी को अंतिम सच मानकर गिरफ्तार युवकों को आतंकी लिखता है/ कहता है। इससे पहले की अदालत कुछ फैसला सुनाऐ मीडिया पहले ही उन्हें आतंकी साबित कर चुका होता है। मगर जब वही तथाकथित आतंकी अदालत से बाइज्जत बरी हो जाते हैं तब मीडिया उन्हें कवर करना तक मुनासिब समझता। पुलिस के बड़े अधिकारियों समेत मीडिया के धुरंदर भी किसी भी नागरिक को आतंकी साबित करने में बराबर के हिस्सेदार हैं। जैसी कार्रावाई उन अधिकारियों के खिलाफ होनी चाहिये जिन्होंने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर नौजवानों की जिंदगी बर्बाद की हैं वैसी ही कार्रावाई मीडिया के उन चेहरों के खिलाफ भी होनी चाहिये जिन्होंने मनघड़ंत पैकेज बनाकर नागरिकों की जिंदगियों को क्लंकित किया है। कार्रावाई होगी अथवा नहीं इस बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अबसे पहले ऐसे जितने भी मामले सामने आये हैं उनमें से किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त अधिकारी कोई कार्रावाई नहीं हो पाई है। ऐसे मामलों में हम संतुष्ट तो हो सकते हैं कि ‘जीतता सच ही है’ मगर इस हार और जीत के खेल में दर्जनों लोग अपना सबकुछ गंवा बैठे हैं।