समान नागरिक संहिता : क़ानून की नहीं, सोच बदलने की ज़रूरत

नई दिल्ली। आरएसएस जैसे हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों की ओर से ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ या ‘समान नागरिक संहिता’ की मांग उठाई जाती रही है इसीलिए यह विवाद का कारण भी है। इसको समझने की जरुरत है। भारत के संविधान में देश में ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ लाने की बात कही गई है, जिसके तहत, शादी, तलाक़, विरासत और गोद लेने जैसे पारिवारिक क़ानून को धर्म और समुदाय के भेदभाव से उठकर समान बनाना है। मुसलमान आमतौर पर यूनिफॉर्म सिविल कोड को अपने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के रूप में देखते हैं।
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य मुस्लिम संगठनों ने कहा है कि केंद्रीय सरकार की समान नागरिक संहिता लाने की कोशिश से देश में कलह पैदा होगी और वे एकजुट होकर सरकार के फ़ैसले का विरोध करेंगे। उनका कहना है कि भारतीय संविधान में सभी को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है और इसी आधार पर वो इसका विरोध करेंगे।

कोलकाता में मुस्लिम पर्सनल लॉ के लिए काम करने वाली महिला उज़मा आलम का कहना है कि मैं यूनिफॉर्म सिविल कोड के ख़िलाफ है क्योंकि इस्लाम में हमारा अपना क़ानून है जो कि किसी का बनाया हुआ नहीं है, बल्कि हम लोग अल्लाह के आदेश के अनुसार चलते हैं। कोलकाता के युवा भी इससे सहमत नज़र आते हैं, राशिदा प्रवीण का कहना है, हो सकता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड में महिलाओं को कुछ अधिकार मिल जाएं लेकिन इस्लाम में भी तो महिलाओं को अधिकार प्राप्त है। अल्लाह और उसके रसूल ने हमारे लिए जो नियम बनाए हैं उसमें हमारे लिए भलाई है।
एक दूसरी छात्रा नसरीन का मानना है कि उनके विचार से महिलाओं को इस्लाम से अधिक सुरक्षा कहीं और नहीं मिली हुई है, जबकि संतान के बीच संपत्ति के वितरण के बारे में एक छात्रा सादिया ख़ातून ने बताया कि इस्लाम में भी तो लड़कियों को अधिकार मिला हुआ है। आपको अपना अधिकार भी मिल रहा है और पति की संपत्ति में भी हिस्सा मिल रहा है, तो वह कहीं न कहीं बराबर से अधिक हो जा रहा है, तो हम यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में क्यों जाएंगे?
सरकार ने अब यूनिफॉर्म सिविल कोड तैयार करने के लिए जनता से उनकी राय मालूम करने का सिलसिला शुरू किया है क्योंकि भारत के समाज में व्यावहारिक रूप से महिलाओं के अधिकारों की उपेक्षा की जाती है। क़ानून के विशेषज्ञों को मानना हैं कि अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड बनता भी है, तो यह केवल हिंदुओं के सिविल क़ानून ही शामिल नहीं होंगे।
भारत में लॉ कमीशन के पूर्व सदस्य और यूनिफॉर्म सिविल कोड और मुस्लिम पर्सनल पर कई पुस्तकों के लेखक प्रोफेसर ताहिर महमूद का कहना है कि अभी तक यूनिफॉर्म सिविल कोड के बारे में किसी प्रकार का कोई मसौदा पेश नहीं किया जा सका है और बहुसंख्यक समुदाय और अल्पसंख्यक समुदाय सब इसके बारे में अनजान हैं। हालांकि उन्होंने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में संशोधन की सख्त जरूरत है। उनके अनुसार मुसलमान जिसे अपना धार्मिक क़ानून समझ रहे हैं वास्तव में वह अंग्रेजों का तैयार किया हुआ है और कई जगह वह क़ुरान के आदेश के विपरीत है।
याद रहे कि वर्ष 1937 में मुसलमानों में शादी, तलाक़, नान और नफ़्क़ा (रोटी-कपड़ा, मकान) और विरासत जैसे सामाजिक मुद्दों के समाधान के लिए अंग्रेजी सरकार के कहने पर एक मुस्लिम पर्सनल लॉ तैयार किया गया था, जिसके आधार पर आज भी फ़ैसले होते हैं। कुछ मुसलमान इसमें संशोधन करना चाहते हैं और विभिन्न मतों के बीच समानता बनाने की बात करते हैं।
आलिया विश्वविद्यालय की छात्रा सादिया नाज़ का कहना है, जिस तरह आजकल का माहौल है ऐसे में महिलाओं को हर जगह बराबरी का मौक़ा दिया जाना चाहिए तब ही स्थिति में सुधार आ सकेगा। जबकि कोलकाता विश्वविद्यालय के छात्र अबरार आलम का मानना है कि मुसलमानों में कुछ आपसी मतभेद हैं लेकिन उन्हें धर्म के अंदर ही क़ुरान और हदीस की रोशनी में हल किया जाना चाहिए।
एक छात्रा महबूबा ख़ातून ने कहा कि क़ानून बदलने से कुछ नहीं होगा, लोगों की सोच बदलने की ज़रूरत है। अगर मनुष्य की सोच बदलेगी तो सब कुछ बदल जाए नहीं तो किसी क़ानून से कुछ नहीं होगा। बहरहाल, सरकार ने फ़िलहाल कोई स्पष्ट रुख़ नहीं अपनाया है, वह यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में तो है लेकिन इसे स्पष्ट रूप देने से हिचकिचाते हैं, शायद इसलिए कि यह आग का दरिया है और डूब के जाना है।