सरकार क्यों तय करे कि पत्रकारिता की दशा और दिशा कैसी हो?

द सियासत डेली के लखनऊ ब्यूरो चीफ शम्स तबरेज़ ने संपादकीय में पत्रकारिता और उसकी आज़ादी पर रौशनी डालते हुए लिखा है…..

“केन्द्र में जब से एनडीए की सरकार बनी है, तब से अभिव्यक्ति की स्वतत्रता को आहत करने के मामलों में इजाफा हुआ। चाहे मामला जेएनयू का हो या रोहित वेमूला का! विचारो की अभिव्यक्ति का हनन लगातार हो रहा है। ऐसे में पत्रकारिता की दशा और दिशा कैसी होनी चाहिए अक्सर ये बात घूम फिर कर पत्रकारो के ही सामने आ रहा है। जब देखो तब सरकार, कलम की आज़ादी को तार-तार करने से बाज़ नहीं आ रही है। जब बात कलम की आ़ज़ादी की आती है तो मीडिया का एक खेमा सरकारी भाषा बोलने लगता है। सरकार भी इस समय राष्ट्रहित, देशहित, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति की ऐसी ऐसी सीमाओं में पत्रकारिता को बांधना चाहती है, जो पत्रकारिता को चारणकाल में ले जाने जैसा है। अभी नवम्बर की बात है जब मैं दिल्ली से रामपुर केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नक़वी के साथ उनकी प्रोगेसिव पंचायत कवर करने गया था।

अचानक खबर आई कि एनडीटीवी इंडिया को एक दिन के लिए बैन करने का सूचना प्रसारण मंत्रालय ने आदेश दिया है। मैंने उसी समय सवाल भी किया कि जिसपर मंत्री ने कहा “सूचना प्रसारण मंत्रालय जैसा निर्देश जारी करेगी वैसा ही करना होगा।” हालांकि जब खूब किरकिरी हो गई तब सरकार ने निर्णय कुछ समय के लिए टाल दिया गया।

फरवरी 2016 में बीबीसी के पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल को पुलिस ने उस समय राष्ट्रवाद और पत्रकारिता की परिभाषा सिखाने को आतुर हो गई जब वो छत्तीसगढ़ में स्टोरी कवर कर रहे थे, उस समय पुलिस विभाग के आला अधिकारी के दिल में राष्ट्रवाद की भावना इतनी ज़्यादा उग्र हो गई कि उसने आलोक प्रकाश पुतुल से कहा कि “आपकी रिपोर्टिंग निहायत पूर्वाग्रह से ग्रस्त और पक्षपातपूर्ण है। आप जैसे पत्रकारों के साथ अपना समय बर्बाद करने का कोई अर्थ नहीं है। मीडिया का राष्ट्रवादी और देशभक्त तबका कट्टरता से मेरा समर्थन करता है, बेहतर होगा मैं उनके साथ अपना समय गुजारूँ।”

 

आलोक प्रकाश पुतुल बीबीसी हिन्दी सेवा के पत्रकार है। ये बात तो थी राष्ट्रवाद की। अगर पत्रकारों की बात करें तो झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में पत्रकारों की हालत बेहद चिंताजनक है, वहां के पत्रकारों को नक्सलवाद ओर पुलिसवाद दोनो से खतरा है। अब सवाल ये है कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता से आखिर सरकारी महकमे इतना चिंतित क्यों है, पत्रकारिता और पत्रकार की दिशा और दशा कैसी होनी चाहिए, ये तय करने का अधिकार सरकार को किसने दे दिया? अगर मामला पत्रकारिता का है, तो ये पत्रकार पर ही छोड़ देना चाहिए किे पत्रकारिता कैसी हो?

अब तो पत्रकारिता संस्थानों में अभिव्यक्ति पर आफत आ चुकी है। देश के अग्रणी पत्रकारिता संस्थानों में एक भारतीय जनसंचार संस्थान यानी आई.आई.एम.सी. नई दिल्ली में एक शिक्षक को किसी विवाद में निकाल दिया गया। आई.आई.एम.सी. में अध्ययन कर रहे पत्रकारिता के छात्र रोहिन वर्मा ने जब इसकी न्यूज कवर की, तो रोहिन को संस्था का कोपभाजन बनना पड़ा, रोहिन को संस्था से सस्पेंड कर दिया गया। 15 दिन बाद भी उसका सस्पेंशन जारी है। मैंने अपने फेसबुक पर अचानक उसकी टाईमलाइन पर एक खबर देखी तो फौरन उसका मोबाईल नम्बर मांगा और मैंने अपना नम्बर भी दिया फिर उसने मुंझे फोन किया एक कराहती अवाज़ सुना, उसके साथ जो सुलूक संस्था कर रही थी, उसमें तानाशाही की इबारत नज़र आ रही थी। मैंने उसकी टाईमलाईन भी खंगाली लेकिन उसमें ऐसा कोई भी आपत्तिजनक वाक्य नहीं देखा जिसके लिए उसकों सज़ा दी रही है। मुंझसे बात करते हुए रोहिन वर्मा ने कहा कि “एक टीचर को संस्था से निकाले जाने की मैंने रिपोर्टिग की थी जो न्यूज लांड्रिंग समेत लगभग 10 अखबारों ने प्रकाशित किया है जिसके बाद से मेरा सस्पेंशन जारी है। मेरी रिपोर्टिंग से सस्था को लगा कि उनकी बदनामी हुई। न्यूज़ लांड्रिंग के संपादक को भी कुछ नहीं कहा गया। सीधे ही बिना मुंझे नोटिस दिए सस्पेंड कर दिया। जांच कमेटी का कहना है दूसरे लिखते हैं तो कम बदनामी होती है, आप संस्था में पढ़ते हो इसलिए आपके लिखने से संस्था की ज़्यादा बदनामी होती है।” रोहिन ने वीसी पर उनको ट्रोल करने का भी संदेह ज़ाहिर किया है। रोहिन ने मुंझसे से बात करते हुए ये भी बताया कि “रिपोर्टिंग के मामले में उनसे उनका पक्ष नहीं सुना गया।” रोहिन वर्मा बिहार के गया ज़िले के रहने वाले है और दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में ग्रेजुएट हैं।

अब सवाल ये है कि जब देश के पत्रकारिता संस्थान ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहार करने लगे है तो ये पत्रकारिता संस्थान किस प्रकार के पत्रकार को जन्म देना चाहती हैं, क्या नई पीढ़ी को सरकारी मुखपत्र बनना है या वो सत्ताधारी दलों की चाटूकारिता को बढ़ावा देने के लिए पत्रकार रूपी चाटूकार को जन्म देना चाहती हैं?

सरकार अपना काम करे और पत्रकार को उसका कार्य करने दे। वरना टकाराव होना कोई नई बात नहीं है। भारत की पत्रकारिता अपना वजूद खोती जा रही है, बात-बात में सरकार राष्ट्रवाद और देशप्रेम का पाठ सिखाने लगती है। नोटबंदी का न्यूज़ कवर करने के दौरान मैंने कवर किया तो जाना कि नोटबंदी का समर्थन करने वाले को राष्ट्रवादी कहा जाता है और विरोध करने वालों को पाकिस्तानी अथवा देशद्रोही।

लेकिन हर बार पत्रकार को ही सवालो के घेरे में खड़ा कर दिया जाता है। आज जिस प्रेस की स्वतंत्रता की हम बात करते है न जाने कितने पत्रकारो ने अपने पीठ पर लाठियां खाई है और कितनो ने शहादत का जाम पिया, जो बच गए वो कालकोठरी और कालापानी के नाम हो गए।

आज पत्रकारिता को सरकारी तंत्र और तानाशाही ने इतना जकड़ लिया है कि जेम्स हिक्की की आत्मा भी कराह रही होगी जिसने इसी पत्रकारिता के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया। उन शहीदों की आत्मा भी आज की युवा पीढ़ी को लानते भेज रही होगी, जिन्होने कलम की आज़ादी के खातिर अपना सिर कलम करवा लिया, लेकिन कलम को सरकारी तंत्र का गुलाम नहीं बनने दिया। इसी का नतीजा है कि आज कलम़ ने कहीं न कहीं नेताओं के दिल में डर पैदा कर दिया है, इसीलिए नेता ऑन कैमरा सवालों से बचने के लिए कहते हैं कि उनको सवालों की प्रश्नसूची पहले दो वरना इण्टरव्यू या बाईट नहीं देंगे। ज़ाहिर है, पत्रकारिता का कभी भी कोई आदर्शकाल नहीं रहा और न ही कभी होने की संभावना है। लेकिन जब इस देश में राजा-राजवाड़ों का राज खत्म हो गया, बादशाहों की बादशाहियत नहीं रही और खुद हिटलर और मुसोलनी नहीं रहे तो ये तानाशाही भी उसी तरह अपने विदा हो जाएगी, जैसा विदाई इस देश ने अंग्रेज़ों को दी।

ज़रूरत है तो बस सब्र और होशियारी की, क्योंकि हम सरकारी भाषा से डरते है, इसीलिए तो हमे डराया जाता है।”

…..(शम्स तबरेज, ब्यूरो चीफ-लखनऊ, द सियासत डेली)

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