सही मानों में नहीं आ सका इंक़लाबः एम टी ख़ान

एम. टी. खान आन्ध्र प्रदेश की अंग्रेज़ी और उर्दू सहाफ़त के अलावा कम्यूनिस्ट पार्टी की सरगर्म शख्शियत के तौर पर जाने जाते हैं। उन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी पार्टी और सहाफ़त के लिए वक़्फ कर दी। पहले ईनाडू ग्रूप के अंग्रेज़ी अ़खबार `न्यूज़ टाइम’ और बाद में रोज़नामा `सियासत’ के साथ जुड़े रहे। निज़ाम के दौराने हुकूमत ही वो शाही हुकुमरानी के खिलाफ़ तहरीक में शामिल हुए। पार्टी के साथ तहरीकों में हिस्सा लिया और जेल भी गये। एम.टी. ख़ान की पैदाइश 1935 में हुई। उनका ख़ानदान त़करीबन 300 साल से शहर के ताऱीखी पुरानापुल दरवाज़े के पास रहता है। उनके साथ गुफ़्तगू का ख़ुलासा यहाँ उन्हीं की ज़बानी पेश है- एफ. एम. सलीम

दादा मुहम्मद इमामुद्दीन खान सरहदी इल़ाक़े से कर्नाटक के रास्ते हैदराबाद आये थे। वो मरसिनरी सिपाही थे। मरसिनरी सिपाही नवाबों, जागिरदारों और बादशाहों के पास, खिदमात अंजाम दिया करते। एक घोड़ा, एक तलवार,.. बस इतनी ही उनकी मिल्कियत हुआ करती थी और जब वो हैदराबाद आये थे उनके पास इतना ही असासा था। ये जो म़ुकाम है (पुराना पुल दरवाज़े के पास ख़ान साहब का मकान), यहीं पर मेरे दादा म़ुकीम हो गये और यहीं पर दादी से उनकी शादी हुई। नवाब मीर आलम अली ख़ान ने उन्हें बुलाया था। गुलाब सिंह बौली के पास नवाब साहब की देवढ़ी है। दादा उन्हीं के पास म़ुकर्रर हुए और यह मकान भी उसी दौर में हासिल किया। वालिद साहब सरकारी दव़ाखाने में मुलाज़िम हुए। घर पर भी वे हकीमी करते थे।

एम.टी. का मतलब
सिटी कॉलेज उन दिनों हाई स्कूल हुआ करता था। उसी में मैंने द़ाखला लिया। आन्ध्रा के एक टीचर राघवाचारी अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। मेरा पूरा नाम मुहम्मद ताजुद्दीन ख़ान था, जिसका तलफ्फ़ुज उनके लिए काफी मुश्किल था। उन्होंने मुहम्मद ताजुद्दीन को एम.टी. बना दिया। चारी साहब ने कहा, `जब एम.टी.राजू हो सकता है तो एम.टी.खान क्यों नहीं।’

.. उन दिनों रियासत के चीफ सेक्रेटरी एम.टी. राजू हुआ करते थे।
एक और उस्ताद याद आते हैं। मुहम्मद यूसुफ साहब अंग्रेज़ी पढ़ाते थे। टोली चौकी से तांगे में आते थे। उनके बारे में मशहूर था कि वो पहले आलिया स्कूल में पढ़ाते थे। काफी ज़ईफ थे। तांगे से उतरने और चढ़ने में एक चपरासी उनकी मदद करता था। वो जिस सवारी में आते थे, उसमें तांगेवाले के अलावा एक ही सवार बैठ सकता था।

पुरअमन रहा हैदराबाद..
उस वक़्त हैदराबाद में किसी तरह की मज़हबी तफ़ऱीक नहीं थी। बहुत पुर-अमन दौर था। हर मज़हब के त्यौहार मिलजुल कर मनाते थे। ख़ुसूसन ईदैन और दीपावली व दशहरा में मिलकर ख़ुशियाँ मनायी जाती। मुहर्रम की अज़ादारी में भी हिन्दू शामिल होते।

मेरा ख़ानदान वालिद की तरफ से एक दर्गाह का मुतवल्ली रहा, लेकिन मज़हब के मामले में कभी भी शिद्दत पसंदी नहीं रही। चूंकि मोहल्ले में हिन्दू और मुस्लिम आबादी मुश्तरेका तौर पर रहती थी। इसलिए सभी मज़ाहिब के मानने वालों में नफ़रत बिल्कुल नहीं पायी जाती थी। उस ज़माने में मज़हबियत तो थी, लेकिन ज़ाहिरी तौर पर इतनी मज़हब परस्ती नहीं थी।

आज़ादी के साथ-साथ त़कसीम की वज्ह से मुल्क में कई जगहों पर फ़सादात हुए। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश से कई महाजिरीन उन दिनों हैदराबाद आये। हैदराबाद में किसी क़िस्म का फ़साद नहीं हुआ। हालांकि बाद में हैदराबाद रियासत के मराठवाड़ा और कर्नाटक के इल़ाकों में फसादात से हज़ारों की तादाद में लोग मुतासिर हुए, लेकिन शहर हैदराबाद फसादात की लानत से बचा रहा। जो लोग फ़सादात से मुतासिर हो कर आये हैदराबाद में उनके लिए पुरअमन तऱीके से सुकूनत के इल़ाके महफूज़ कर दिये गये। गोशामहल और चादरघाट में कई ख़ानदान उन दिनों आबाद हुए।

उस वक़्त मआशी तौर पर हैदराबाद में दो ही तब़कात थे। एक अमीर और दूसरा ग़रीब। मिड़ल क्लास अभी मुकम्मिल तौर पर तशकील नहीं पाया था। पुराने शहर में आज भी उन महलों और देवढ़ियों के खंडरात मौजूद हैं, जिनमें खुरशीद जाह, नवाब मीर आलम अली ख़ान और दीगर जागीरदार रहा करते थे। शहर में जो ग़ैर मुत्वसत तब़का था, उसमें छोटे मोटे ताजिर रहा करते थे। सरकारी मुलाज़िमों की तादाद कम थी। जो लोग उस ज़माने में सरकारी मुलाज़िम थे या छोटे मोटे ताजिर थे, दोनों बहर हाल ख़ुशहाल ही थे। दूसरे पेशे जैसे धोबी, चमार और दीगर लोग शदीद ग़ुरबत में ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर थे। ये इल़ाका (पुराने पुल के पास) बड़े जागीरदारों की देवढ़ियो की लिए मशहूर था, लेकिन जागीरदाराना निज़ाम खत्म होने के बाद वो हवेलियाँ और देवढ़ियाँ वीरान हो चुकी थीं। उन ख़ानदानों के लोग आहिस्ता, आहिस्ता, बंजारा हिल्स, जुबली हिल्स और दीगर इल़ाकों में मुंतक़िल होने लगे।

कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ…
छावनी नादिर अली बेग के रहने वाले एक साहब पी. लक्ष्मीदास के एक रिश्तेदार हमारे मुहल्ले में रहते थे। उनका ताअल्ल़ुक कम्यूनिस्ट पार्टी से था। उस ज़माने में उनपर पुलिस की ख़ास निगरानी भी थी। वो पोशीदा तौर पर यहाँ आते थे। कम्यूनिस्ट पार्टी के लीड़र रामचंदर भी मेरे पड़ौसी थे। बाद में वो मुलाज़िमीन की तनज़ीम के लीड़र बन गये। उनसे मेरी मुल़ाकात हुई। उस वक्त पार्टी की रुक्नियत हासिल करना आसान नहीं था। पहले बरसों तक पार्टी के हिमायती के तौर पर काम करना पड़ता था और रुकनियत बाद में दी जाती थी। अमली तौर पर पार्टी का काम करने के बाद मुझे भी मेम्बरशिप दी गयी।

नवाब मीर उस्मान अली ख़ान_ _
लोगों में मशहूर था कि नवाब मीर उस्मान अली ख़ान दुनिया के अमीरतरीन बादशाहों में से एक हैं, लेकिन जिस तरह मैंने उन्हें देखा वो बिल्कुल अलग ही शख़्सियत थे। वो इन्तेहाई सादा लिबास में मलबूस रहते थे। हालांकि वो मोटर में सफ़र करते थे। उसके बावजूद रबर की मामूली चप्पल पहनते। शेरवानी और पाजामे में मक्का मस्जिद आते थे। मक्का मस्जिद के पीछे इल़ाके में खिलवत में वो रोज़ अपनी मोटरों के जुलूस में आया करते थे।

हैदराबाद रियासत के इंडियन यूनियन में शामिल होने के बाद भी उनके रहन-सहन और मामूल में कोई तबदीली नहीं आयी। किंग कोठी, जिसकी गेट पर पर्दा लगा रहता था। सवारी बाहर निकलते वक़्त पर्दा उठा लिया जाता था। मैंने दूर ख़ड़े होकर देखा है, एक खिदमत गुज़ार रबर की चप्पलें उन्हें पहनाता था।

मख़्दूम मुहियुद्दीन …
जब हैदराबाद में ट्रेड यूनियनों का आग़ाज़ हुआ, कम्यूनिस्ट लीडर व शायर मख़्दूम मुहियुद्दीन भी ट्रेड यूनियनों की तहऱीकों में शामिल थे। पहले वो सिटी कॉलेज में टीचर थे। मुलाज़िमत से इस्तीफा देकर वो कम्यूनिस्ट पार्टी में शामिल हो गये थे। मख़्दूम जागीरादाराना निज़ाम और बादशाहत दोनों के खिलाफ थे। हालांकि उन्हें अपनी सरगर्मियों के लिए आज़ादी थी, लेकिन निगरानी भी रखी जाती थी। निज़ाम अपने म़ुखालिफ़ीन पर पूरी निगरानी रखा करते थे। उन दिनों आर्यसमाज भी निज़ाम के खिलाफ़ था। उस पर भी निगरानी थी।

अधूरी रही तालीम..
मैने 1948 में मैट्रिक का इम्तेहान कामियाब किया और वी वी कॉलेज से इन्टरमीडियट के बाद उस्मानिया यूनिवर्सिटी में बीए में दाखिला लिया, लेकिन तालीम अधूरी रही। ..रामाकृष्णा थिएटर के पास एक मलगी में पीपुल्स बुक हाउस था। इसी में सेल्समैन के तौर पर काम शुरू किया। इस बुक हाउस के मैनेजर मिर्ज़ा हैदर हसन थे। वो ख़ुद भी कम्यूनिस्ट थे। बाद में हैदर हसन साहब ने रोज़नामा ‘सियासत’ में मज़मूननिगार के तौर पर काम किया। उस वक़्त बुक हाउस के मैनेजर को 500 और मुझे 250 रुपये तनख़्वाह मिलती थी। मैंने यहाँ त़करीबन 6 साल तक काम किया और फिर पार्टी में सरगर्म हो गया। पार्टी की जानिब से जो भी मिलता उसी पर गुज़ारा हो जाता। बाद में अंग्रेज़ी रोज़नामा न्यूज़ टाइम में मुलाज़िमत कर ली।

गोवा की आज़ादी की तहरीक
जिन दिनों मैं पार्टी में काम कर रहा था। उन्हीं दिनों गोवा में आज़ादी की तहरीक चल रही थी। शहर हैदराबाद में भी गोवा लिबरेशन तहरीक काम कर रही थी। उस ज़माने में पंडित नरेंद्रा उसकी क़ियादत कर रहे थे। वो आर्य समाजी थे। उस कमेटी की जानिब से चंद नौजवानों को कहा गया कि गोवा लिबरेशन के लिए सत्याग्रह करना है। हमें गोवा में दाखिल होने के लिए छोटी सी नदी को पार करके गोवा के इल़ाके में दाखिल होना था। उसी दौरान हमें गिरफ़्तार कर लिया गया। इस तहरीक में निज़ाम कॉलेज और सिटी कॉलेज के तुलबा भी शामिल थे। उसी दौरान फौज़ी कार्रवाई हुई और पोर्तुगीज़ों को गोवा छोड़कर जाना पड़ा।

सहाफ़त
सहाफ़त उस ज़माने में बिल्कुल आज़ाद थी। किसी सियासी नज़रिये की जमात से मुतासिर नहीं थी। उस ज़माने में उर्दू सहाफ़त काफी म़कबूल थी। हैदराबाद के दो मशहूर रोज़नामे रहबरे दकन(बाद में रहनुमा ए दकन) और निज़ाम गज़िट के अलावा वक़्त भी शाये होता था। अब्दुर्रहमान साहब भी वक़्त में थे बाद में वो सियासत में अहम म़ुकाम रखते थे। बाद में रोज़नामा सियासत ने उर्दू सहाफत में अहम म़ुकाम हासिल किया। उस वक़्त अ़खबार पूरी तरह ग़ैर जानिबदार थे। अवाम की बात को अहमियत दी जाती थी।

सही मानों में नहीं आ सका इंकलाब
हैदराबाद में जो भी तबदीलियाँ आयी वो सतही और सियासी नौइयत की तब्दीलियाँ थीं। तहरीकों ने अपने तौर पर तो काम किया, लेकिन ये तहरीकें इंकलाब लाने में नाकाम रहीं। अवाम को जिनसे उम्मीदें थी, वही ख़ुदग़र्जियों के ताबे हो गये। सही मानों में इन्क़लाब नहीं आया। जिन तब्दीलियों के ख़्वाब हमने देखे थे, वो पूरे नहीं हुए। मआशी खुशहाली, ग़ुरबत व अफ़लास का ख़ातेमा, तालीम व रोज़गार के मव़ाक़े, मसावात जैसे कई म़कासिद थे, जो अधूरे ही रहे। आज भी वही मआशी इन्हेतात है, बल्कि मआशी इन्हेतात और गहरा होता जा रहा है। सियासी म़ौकापरस्ती बढ़ती जा रही है। फ़िर्कापरस्ती उरूज पर है। हमारे बचपन और जवानी में यह सब चीज़ें नहीं थीं।

आने वाले हालात
हालात हर वक़्त बदलते रहते हैं। वक़्त कभी एक जैसा नहीं रहता। इसलिए हाल में जीते हुए मुस्त़कबिल को बेहतर बनाने की कोशिश की जानी चाहिए।