सह गौना (एक साथ तीन काम) मेहनत की ज़हमत न करें

(ऐ हबीब!) आप हरकत ना दें अपनी ज़बान को इसके साथ ताकि आप जल्दी याद कर लें उस को। हमारे ज़िम्मा है इसको सीना मुबारक में जमा करना और उसको पढ़ाना। (सूरत अल क़यामा १६,१७)

नबुवत की नाज़ुक और गिरां ज़िम्मेदारीयों का हुज़ूर स०अ०व० को अज़हद एहसास था। जब वही नाज़िल होती तो हुज़ूर स०अ०व० पूरी तरह मुतवज्जा होते और हज़रत जिब्रईल अमीन ज्यों ही अल्लाह तआला के कलाम की करात शुरू करते, आप ( स०अ०व०) भी इसे जल्दी जल्दी तिलावत करते, मबादा कोई लफ़्ज़ रह जाये। बैयक वक्त तीन काम। सरापा तवज्जा बन कर सुनना, फिर उसी वक़्त उसकी तिलावत करना और इसके मफ़हूम को समझना बड़ा दिक़्क़त तलब और तकलीफ़देह काम था। अल्लाह तआला को अपने महबूब की ये तकलीफ़ गवारा ना हुई। इस ज़हमत से बचाने के लिए ये आयात नाज़िल फ़रमाएं।

इस सयाक़-ओ-सबॉक् में ये आयात शायद किसी को बेरब्त मालूम हों, लेकिन हक़ीक़त ये नहीं। यही वो मुक़ाम है, जहां उन्हें होना चाहीए। हुज़ूर अकरम स०अ०व०का मामूल अगरचे इब्तिदा से यही था कि आप सुनने, समझने और याद रखने की बैयक वक्त कोशिश फ़रमाते, जिससे यक़ीनन तबीयत पर बोझ पड़ता, लेकिन यहां क़यामत का, क़यामत के मुनकरीन और क़यामत की होलनाकियों का ज़िक्र हो रहा है।

मज़मून की अहमीयत के पेशे नज़र हुज़ूर स०अ०व० ने अपने सह गौना अमल में मज़ीद कोशिश फ़रमाई होगी। जब इस तरीका-ए-कार की गिरानी को आप ( स०अ०व०) शिद्दत से बर्दाश्त फ़रमा रहे थे, वही बेहतरीन मौक़ा था कि इस शिद्दत से रिहाई का मुज़्दा सुनाया जाता।

इस मुज़्दा को सुनाने के बाद सिलसिला कलाम दुबारा शुरू हुआ। इरशाद फ़रमाया कि सह गौना ज़हमत की ज़रूरत नहीं। जब जिब्रईल हमारी आयतें पढ़ कर सुना रहे हों तो उस वक़्त आप सिर्फ़ ध्यान से सुनते जाएं और ये फ़िक्र ना करें कि कलाम का कोई हिस्सा फ़रामोश हो जाएगा , ये फ़िक्र दिल से निकाल दें।