दूनीया भर मे मुसल्मान ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती, क़तल-ओ-ख़ून, जांबदारी और तास्सुब का शिकार हैं। हर तरफ़ से इस्लाम और मुसल्मानों के ख़िलाफ़ नफ़रत-ओ-अदावत के लावे फूट रहे हैं। उसामा बिन लादन को वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर हमला का ज़िम्मेदार क़रार देते हुए अफ़्ग़ानिस्तान पर हमला करके तालिबान हुकूमत को गिराया गया। इराक़ में जौहरी-ओ-जरासीमी हथियार का इल्ज़ाम लगाकर सद्दाम हुसैन का तख़्ता उलट दिया गया। न्यूक्लीयर के नाम पर ईरान पर हमला की तैयारी की जा रही है। बहरहाल कुछ ना कुछ बहाना बनाकर मुसल्मानों का ख़ून बहाया जा रहा है।
हिंदूस्तानी मुसल्मान जुम्हूरी अक़दार के पाबंद हैं। अपने हम वतनों के साथ मिल कर मिली जुली तहज़ीब में प्यार-ओ-मुहब्बत के साथ रहते हैं, लेकिन हिंदूस्तान के अमन पसंद मुसल्मान ग़ैरों को एक आँख नहीं भाते और वो मुसल्सल इस्लाम और मुसल्मानों के ख़िलाफ़ साज़िश और ज़हरीले मंसूबे तैयार करते हैं। हिंदूस्तानी मुसल्मान अपने वतन-ए-अज़ीज़ से ग़ायत दर्जा मुहब्बत रखते हैं, बिरादरान वतन से हद दर्जा हुस्न-ए-सुलूक करते हैं, दहश्त गरदाना कार्यवाईयों की भरपूर मुज़म्मत करते हैं, लेकिन हिंदूस्तानी मुसल्मानों से उन की नफ़रत और दुश्मनी की सिर्फ और सिर्फ वजह ये है कि मुसल्मान अल्लाह ताला को एक मानते हैं, इस के इरसाल करदा रसूल पर ईमान रखते हैं और इस की नाज़िल करदा शरीयत पर अमल करते हैं।
अल्लाह ताला का इरशाद है: उन्हों (ग़ैर मुस्लिमीन) ने इन (मुस्लमानों) से इंतिक़ाम सिर्फ और सिर्फ इस लिए लिया कि वो अल्लाह ताला पर ईमान लाए, जो कि ग़ालिब है और काबिल-ए-सताइश है। (सूरत बुरुज)
हिंदूस्तान में इस्लाम और मुसल्मानों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर कई तंज़ीमें सरगर्म अमल हैं, वो जारिहाना तीव्र रखती हैं, बल्कि उन को इस्लाम और मुसल्मानों से सख़्त नफ़रत है। इन की नफ़रत-ओ-दुश्मनी एसी शदीद है कि इस को किसी मिसाल के ज़रीया समझाया नहीं जा सकता। वो हिंदूस्तान में लफ़्ज़ इस्लाम और मुसल्मान को ना देखना चाहते हैं और ना सुनना चाहते हैं। अगर उन को क़ुदरत मिल जाय तो एक एक मुसल्मान को अपने हाथों से क़त्ल करके उन के दिल और जिगर के टुकड़े टुकड़े करदें। हत्ता कि अगर मुसल्मानों के जिस्मों को जलाकर ख़ाकसतर करदें , तब भी उन के दिलों में जलने वाली नफ़रत-ओ-अदावत की आग ठंडी नहीं होगी।
संगा रेड्डी फ़सादाद के ज़ख़म पर अभी मरहम भी नहीं लगा था कि सईदाबाद और मादन्ना पेट (हैदराबाद) के मुसल्मानों के घरों पर हमला ने हवासबाख़ता कर दिया। दुश्मन इस क़दर सरकश हो गया है कि वो सद फ़ीसद मुस्लिम आबादी वाले इलाक़ों में भी दिन दहाड़े हमले और मुस्लिम ख़वातीन के साथ बदसुलूकी कर रहा है। तरफ़ा तमाशा ये कि मुसल्मान उन की हरकतों से दिलबर्दाशता होकर मुदाफ़अत की कोशिश करते हे तो उन पर क़ानूनी शिकंजा कस दिया जाता है। आख़िर ये कैसा क़ानून है? जिस से सारी दुनिया के दुश्मनों को इस्लाम के ख़िलाफ़ अल लएलान ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती करने का हौसला मिल रहा है? और उन को हर तरह क़ानूनी छूट भी मिल रही है। ये क़ानून, इक़तिदार और ग़ैर समाजी अनासिर की मिली भगत तो नहीं ?।
दरहक़ीक़त ये आलमी सहयुनी ओ सलीबी तशद्दुद पसंद अनासिर की साज़िश है कि मुस्लमानों पर क़ानून का सहारा लेकर ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती के पहाड़ ढाए जाएं और जब वो मजबूर होकर मुदाफ़अत का रास्ता इख़तियार करें तो उन को मुजरिम, दहश्तगर्द, ज़ालिम, क़ानून शिकन का नाम दे कर मज़ीद ज़ुलम-ओ-सितम किया जाय। एसे नाज़ुक हालात में हर मुसल्मान के लिए लाज़िम है कि वो अपनी ज़ात, अपने अफ़राद ख़ानदान और अपनी मिल्लत की हीफ़ाजत ओ सियानत के लिए फ़िक्रमंद हो जाय और हर शख़्स अपने तौर पर इस के हल का तरीक़ा इख़तियार करे। दुश्मन के मक़ासिद को समझ कर उन को उन के मक़ासिद में कामयाब ना होने दें। दुश्मन ख़ुद फ़ित्ना पर्वर है, अपने मुक़द्दस मुक़ामात की बेहुर्मती करता है, ताकि इस का इल्ज़ाम मुसल्मानों के सर थोप कर उन पर हमले किए जा सकें। एसे वक़्त में मुस्लमानों को चाहीए कि अपने होश-ओ-हवास क़ाबू में रखते हुए अपनी मुदाफ़अत करें, लेकिन हत्तलमक़दूर गै़रक़ानूनी कार्यवाईयों से बचें, ताकि मुसल्मानों को गिरफ़्तार करके बदनाम करने का मंसूबा नाकाम हो जाय। ये बात ज़हन में रखें कि मुदाफ़अत का हक़ फ़ित्री होता है। हक़पसंद, दिलेर और बहादुर मुसल्मान ना सिर्फ अपनी मुदाफ़अत ख़ुद करते हैं, बल्कि वो ज़ालिम का हाथ थाम कर उस को भी ज़ुल्म से रोकते हैं और साथ ही दीगर बिरादरान वतन को भी ज़ुल्म-ओ-जबर से बचाते हैं।
अब वक़्त आगया है कि मुसल्मान अपने वतन-ए-अज़ीज़ अमन के गहवारा हिंदूस्तान को मुट्ठी भर दहश्तगरदों की बुरी नज़र से बचाने के लिए कमर हिम्मत बांध लें, फ़िर्का परस्त अनासिर को कुचलने के लिए सेक्युलर ज़हन अफ़राद को अपना हमनवा बनाए और सेक्युलर ग़ैर मुस्लिमों के साथ मिल कर अपने वतन को बचाने की फ़िक्र करें। ग़ैर जांबदार बिरादरान वतन के साथ काम करना, उन को अपना हलीफ़ बनाना, उन का तआवुन करना या उन से तआवुन हासिल करना नबी अकरम (स.व.) और सहाबा किराम (रज़ी.) के तर्ज़ अमल से साबित है। नबी अकरम (स.व.) को हिज्रत से क़ब्ल ताइफ से वाप्सी के मौक़ा पर हिमायत का मसला दरपेश था। अबू लहब ने साफ़ हिमायत से इनकार और दुश्मनी का एलान करदिया था। आप ने ग़ार ए हिरा में क़ियाम फ़रमाया और एक ग़ैर मुस्लिम अबद उल्लाह बिन उरैकित के ज़रीया अख़नस बिन शरीक से हिमायत की ख़ाहिश की। इस ने इनकार कर दिया तो सुहेल बिन उम्र के पास हिमायत का पयाम भेजा। इस ने भी इनकार कर दिया तो मुताम बिन अदी से हिमायत की ख़ाहिश की। इस ने क़बूल कर लिया और अपने बेटों और कबिला के लोगों के साथ हरम के पास आकर हिमायत का एलान किया। अबु जहल ने पूछा पनाह दे रहे हो या तुम ने पैरवी क़बूल करली है? तो मुताम बिन अदी ने जवाब दिया कि सिर्फ पनाह दी है। ग़ज्वा बदर से पहले मुताम बिन अदी ने वफ़ात पाई और आख़िरी वक़्त तक वो मुस्लमान नहीं हुए। नबी करीम (स.व.) ने मुताम बिन अदी के एहसान को याद करके बदर के क़ैदीयों के सिलसिले में फ़रमाया अगर आज मुताम ज़िंदा होते और उन क़ैदीयों के बारे में सिफ़ारिश करते तो मैं इन की ख़ातिर इन सब को रिहा कर देता।
इसी तरह हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ (रज़ी.) ने कुफ़्फ़ार मक्का के ज़ुल्म-ओ-सितम से तंग आकर हब्शा की तरफ़ हिज्रत का इरादा किया तो आप की मुलाक़ात एक ग़ैर मुस्लिम सरदार इबन दूगून्ना से हुई और इस ने आप की हिज्रत पर अफ़सोस का इज़हार करते हुए आप को पनाह दी और तमाम सरदारान ए क़ुरैश के रूबरू हज़रत अबू बकर सिद्दीक़ (रज़ी.) की अवामी ख़िदमात को ज़ाहिर किया।
लिहाज़ा वक़्ती जज़बात में आकर नुक़्सान उठाने की बजाय सब्र-ओ-तहम्मुल का मुज़ाहरा करना चाहीए और क़ानूनी गिरिफ़त से बचने की हत्तलमक़दूर कोशिश करनी चाहीए। अपनी मईशत को मज़बूत और अपने इलमी मेयार को बुलंद करते हुए हुकूमती मह्कमाजात बिलख़सूस पुलिस, अदालत, सिविल सर्विस वग़ैरा में अपनी क़ाबिल लिहाज़ तादाद बढ़ाने के लिए हिक्मत-ए-अमली की ज़रूरत है। हिंदूस्तान हमारा मुल्क है, इस की हर चीज़ पर जिस तरह दीगर बिरादरान वतन का हक़ है, इसी तरह हमारा भी हक़ है। बैरूनी मुलाज़मतों को तर्जीह दे कर हुकूमती नौकरीयों से ग़ाफ़िल होना और इस के लिए अपना और अपनी औलाद का ज़हन ना बनाना, दर हक़ीक़त दुश्मन को इस के बुरे मक़ासिद में आसानी फ़राहम करना है।