साईंस को रोज़गार से मरबूत करे हिन्दुस्तान

अमरीका के मारूफ़ इदारे नासा में हिन्दुस्तानी साइंसदाँ ज़्यादा होने की गुमराह कुन तशहीर की जाती है .हकीकत ये है कि नासा में हिन्दुस्तानी साइंसदानों की तादाद तीन फ़ीसद से ज़्यादा नहीं हैं . ये दावा डा. नरोत्तम बंसल करते हैं।

डा. बंसल नासा के ग्लेन रिसर्च सैंटर में सिरेमिक्स ब्रैंच के मवाद और आदाद-ओ-शुमार महकमे के सीनीयर साइंसदाँ हैं। रीमिक्स और ग्लास के मुख़्तलिफ़ इस्तिमाल में तहक़ीक़ के लिए बैन-उल-अक़वामी सतह पर कई ऐवार्ड से उन्हें नवाज़ा गया है। नासा के कई मंसूबों में उन्होंने अहम किरदार निभाया है। फ्यूल सेल्ज़ ऐंड हाईड्रोजन तवानाई के मौज़ू पर किताब भी लिखी है। उनका ताल्लुक़ हैदराबाद से है और वो 1985 में अमरीका चले गए थे। वो एक प्रोग्राम में हिस्सा लेने के लिए हैदराबाद आए हैं। इसी दौरान ख़ुसूसी बातचीत में उन्हों ने कहा यहां ( हिन्दुस्तान में ) लोगों का ख़्याल है कि नासा में हिंदुस्तानियों की तादाद काफ़ी ज़्यादा होगी। पता नहीं बढ़ा च़ढा कर ऐसा क्यों कहा जाता है। नासा ही नहीं माइक्रो साफ्ट या दूसरी कंपनियों में भी ऐसी सूरत-ए-हाल नहीं हैं। नासा में दो तीन फ़ीसद से ज़्यादा नहीं है। अगरचे कि दो तीन फ़ीसद भी बड़ी तादाद है। हमारे यूनिट में 1600 लोग काम करते हैं, तो वहां चालीस पच्चास से ज़्यादा हिंदउस्तानी नहीं होंगे। पूरे मराकिज़ में यही सूरत-ए-हाल है।

डा. बंसल ने कहा कि सियासी फ़ोरम से लोग झूट बोलते हैं। इंडिया शाएइंग जैसे नारों के सहारे ऐसा बताने की कोशिश की जाती है, जैसे पूरी दुनिया को भारत ही चला रहा है। एक सैमीनार का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि एक मीटिंग हुई थी. आठ दस नोबल इनामयाफ्ता आए थे। किसी ने वहां प्रेज़ेन्टेशन दी थी कि नासा में हिंदुस्तानियों की तादाद 30 फ़ीसद से ज़्यादा है। एक वज़ीर ने अपनी तक़रीर में भी यही कहा।ऐसी बातों से बैन-उल-अक़वामी समाज में लोग हंसी उड़ाते हैं। ऐसा नहीं है कि भारत में साईंसी सरगर्मियां कम हैं ।यहां भी बड़ी बड़ी लेबारेट्रिया हैं। बहुत सारे इदारे काम कर रहे हैं।

अमरीका और हिन्दुस्तान के साईंसी समाज की काम करने के तरी़के में फ़र्क़ का ज़िक्र करते हुए डा. बंसल ने कहा कि हिन्दुस्तान में काम का माहौल बहुत अच्छा नहीं। यहां आली ओहदों का दब – दबा ज़्यादा है। नए लोगों को ज़्यादा एहमीयत नहीं दी जाती। ये नहीं समझा जाता कि नई सलाहियतों से भी बहुत कुछ नए ख़्यालात हासिल कर सकते हैं। सारा काम सीनियारिटी की बुनियाद पर चलता है। जबकि अमरीका में साईंसी समाज इस दबदबे से आज़ाद हैं। ` चाहे बॉस का बॉस ही क्यों ना आए आप को डिक्टेट नहीं कर सकता। कामयाबीयों के लिए काफ़ी वक़्त दिया जाता है। तमाम को यकसाँ मवाक़े हासिल है। नौजवान सलाहियतों को सीनियर लोगों को साथ काम करने का मौक़ा मिलने की वजह से दोनों तरफ़ फ़ायदा रहता हैं।

डा. बंसल का ख़्याल है कि अमरीका में तो नई नसल साईंस की तरफ़ आर रही है, लेकिन हिन्दुस्तान में नई नसल के नौजवान साईंस की तरफ़ नहीं आ रहे है . ये मसला हिन्दुस्तान में गहराता जा रहा है। यहां पैसा आई टी सनअत में है। इतना ही नहीं इंजीनीरिंग में दूसरे इलाक़े भी नजरअंदाज़ हैं। आम इंजीनीयरिंग और साईंस में पैसा नहीं है। अमरीका ये मसला नहीं है, बल्कि वहां आई टी में कम लोग जाते हैं वो ये समझते हैं कि बहुत आई टी का काम बोरिंग है। उन का ख़्याल है कि तालीम-ओ-तहक़ीक़ का रोज़गार से गहिरा ताल्लुक़ है . नई नसल बासलाहीयत है , लेकिन मुस्तक़बिल का इंतिख़ाब करते वक़्त पैसे की एहमीयत ज़्यादा होता है। इस लिए हकूमत-ए-हिन्द को चाहिए कि साईंस के मैदान में ज़्यादा आमदनी के ज़राए को ज़हन में रखते हुए सरमाया कारी करवाए।

डा. बंसल ने अमरीकी लेबारेट्रियों में कॉलिज तलबा के साथ काम करने के तजुर्बे का ज़िक्र करते हुए डाक्टर बंसल ने बताया कि कॉलिज के तालिब-ए-इल्म छुट्टियों में लेबारेट्रियों में आते हैं। हर साल मौसिम-ए-गर्मा कैंप में 100 तालिब-ए-इल्म होते हैं। उन्हें पता चलता कि लैब किस तरह का कर रहे हैं। वहीं से वो साईंस में तहक़ीक़ का मन बनाते हैं। दूसरी जानिब हिन्दुस्तानी साईंसदानों से उन्हें शिकायत है कि बुनियादी काम की तरफ़ तवज्जा कम दी जा रहा है। हिन्दुस्तानी सलाहियतें जब दूसरे ममालिक में काम करती हैं तो बड़ी कामयाबियां हासिल करते हैं , लेकिन वही देसी माहौल में काम करते हैं तो उन के काम में इतनी तेज़ी नहीं होती . शायद आज़ादी ना होना भी एक वजह है। डा.बसल नई नसल को मश्विरा देते हैं कि वो अपने मौज़ू पक्के हों, ताकि मुल्क हो या बैरून-ए-मुल्क में अपना लोहा मनवाया जा सके।