इक तरफ़ से गुज़रे थे काफिले बहारों के
आज तक सुलगते हैं, ज़ख़्म रहगुज़ारों के
ख़ल्वतों के शैदाई, ख़ल्वतों में खुलते हैं,
हम से पूछकर देखो, राज़ परदादारों के
पहले हंस के मिलते हैं, फिर नज़र चुराते हैं
आश्ना सिफ़्त हैं लोग, अजनबी दियारों के
शुग़ल-ए-मै परस्ती गो,जश्ने नामुरादी था
यूं भी कट गए कुछ दिन, तेरे सोग़वारों के
(साहिर लुधियानवी)