लोकसभा इंतेखाबात के आखिरी मरहले तक पहुंचने के बाद भी तमाम उतार चढ़ावों के बीच फंसे मुस्लिम वोटर्स बिखराव व भटकाव के हालात से उबर नहीं पाए हैं, लिहाजा सियासत के बड़े-बड़े जानकार भी वाराणसी के मुस्लिम वोटर्स का रुझान भांप पाने के हालात में नहीं हैं। दरअसल इंवेस्टीगेशन की माकूल वजह भी है।
सियासी पार्टी सिर्फ इलेक्शन के वक्त ही मुसलमानों के लिए संजीदगी दिखाते हैं। इससे यह मआशरा अपने को छला सा महसूस करता है। सभी मेजर पार्टी मुस्लिमों की सामाजी और इक्तेसादी हालात के बजाय उनके सियासी वजूद को ज्यादा अहम देते हैं। आजादी के बाद से ही ये हिंदुस्तान के शहरी कम वोटर ज्यादा बन गये हैं।
मुस्लिम दानिश्वरों का मानना है कि मुल्क के पहले ही आम इंतेखाबात से सियासी पार्टीयों का एक खेमा हमदर्द तो दूसरा मुखालिफ बनकर मुसलमानों का सियासी इस्तेमाल करता रहा है। सच्चाई यह है कि करोड़ों की आबादी का यह हिस्सा आजादी के इतने सालों बाद भी नाख्वांदगी (Illiteracy) , गरीबी और बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर है। लोकसभा के इस इलेक्शन में भी सियासी पार्टियों ने चुनावी बिसात पर अपनी गोट फिर बिछा दी है।
तमाम नामनहद सेक्युलर मुसलमानों को बाबरी मस्जिद की शहादत , गुजरात और मुजफ्फरनगर दंगे की याद दिलायी जा रही है। सपा-बसपा, कांग्रेस व आम आदमी पार्टी समेत कई छोटीइ पार्टीयां भी मुसलमानों के हमदर्द होने का दम भर रहे हैं। यही नहीं भाजपा तक उनके दिल से जुड़े मुद्दों मसलन उर्दू की तरक्की , मदरसों की जदीदकारी कर मुल्क की कौमी से जोड़ने वगैरह का सुबूत पेश कर कई जगह उनके वोट पाने की कोशिश कर रही है।
हालांकि इस इलेक्शन में भाजपा के लिये मुसलमानों का नज़रिया भी मामूल सा देखने को मिल रहा जो आगे के लिए काफी मायनेखेज साबित हो सकता है। सपा समेत तमाम पार्टियों में मुस्लिमों का भाजपा की तरफ से यह भाव बेचैनी पैदा कर रहा है। नतीजतन कोई भी मुस्लिम वोट की थोक ठेकेदारी का दावा कर पाने के हालात में नहीं है।
पूर्वाचल में उलेमा कौंसिल व कौमी एकता दल जैसी छोटी पार्टियों के उभार से भी मुसलमानों की सियासी ताकत कई हिस्सों में बंटती नजर आ रही है। इसका बिलावास्ता तौर पर फायदा भाजपा को मिलने का इम्कान है। यही वजह है कि इस लोकसभा इंतेखाबात के आखिरी मरहले में अब पूर्वाचल के इलाकों में मुस्लिम वोट के बिखराव को रोकने के लिए कुछ कट्टरपंथी तंज़ीम गैर भाजपाई पार्टियों के बीच एका की अपील करने निकल पड़े हैं। कुछ मुस्लिम दानिश्वरों का यह भी मानना है कि सियासी वजुहात के अलावा भी कई दूसरे वजूहात हैं जो इस कम्युनिटी के बीच अहमियत रखते हैं। मुस्लिमों की सामाजी , माली और सियासी हालात पर नजर डालने से भी कम्युनिटी की बेचैनी की झलक मिल रही है।
एक सर्वे के मुताबिक सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी मजदूर, दस्तकार या दूसरे छोटे-मोटे काम करने वाली ही है। मुस्लिम ख्वातीन की तालीम की हालत तो इंतिहाई मायूसकुन है। कुल मुस्लिम आबादी का तकरीबन पांचवां हिस्सा बीस फीसदी मिडिल क्लास के लोग है। इनकी तमन्ना भी दूसरे हिंदुओं की तरह बढ़ रही हैं। वे अब बिजनस की ओर जा रहे हैं। खरीदारी की ताकत को बढ़ाने के लिए आमदनी का बढ़ना जरूरी हैं। यह तब्का हिंदू-मुस्लिम झगड़े से ऊपर उठकर तरक्की की ओर जा रहा है है। यह तब्का अब आम वोटर्स की तरह बर्ताव चाहता है।
भाजपा की नजर इस तब्के के वोटर्स पर है। आजादी के बाद से मुस्लिम आबादी में इज़ाफा तकरीबन साढ़े पांच गुना से भी ज्यादा हुई, जबकि हिंदुओं की आबादी तीन गुना बढ़ी। वजह नख्वांदगी (Illiteracy) कहें या कुछ और, यह बढ़ी हुई आबादी उनकी परेशानियो में से एक है। Illiteracy और बेदारी की कमी के सबब वक्त की तब्दीली के साथ यह तब्का अपने को ढालने की कोशिश कर रहा है।
मुसलमानों की आबादी में ज्यादा इज़ाफा और कम आमदनी आजादी के बाद 66 सालों की सियासत का नतीजा है। इस लोकसभा इंतेखाबात में भी मुसलमान वोटर्स अपने को ठगा महसूस कर रहा है। यही वजह है कि उसका दानिश्वारान तब्का व सियासी कियादत का एक हिस्सा सारे इख्तेयारात (All options) से निराश होकर आखिरी मुतबादिल (Last Option) के तौर पर अब भाजपा को भी आजमा सकता है।
इन सबके बावजूद सब मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मुसलमान अभी भी सियासी चौराहे पर ही खड़ा है। [कौसर अली कुरैशी]
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