सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय का इस्तेमाल करके किसी प्रदेश की राजनीति बदली जा सकती है

पटना : 2015 में बिहार में महागठबंधन के मुक़ाबले धूल चाटने के बाद भाजपा की समझ में आ गया था कि जातियों के अंक गणित और नीतीश कुमार की नेतृत्वकारी हस्ती के मिले-जुले प्रभाव के सामने मोदी के नेतृत्व से निकलने वाली कथित ‘केमिस्ट्री’ नहीं चलने वाली है. जनता दल (एकीकृत) के प्रवक्ता अजय आलोक ने तो आने वाले वर्षों के लिए भी भविष्यवाणी कर दी है कि नीतीश कुमार और भाजपा की एकता 2019 ही नहीं 2024 में भी कायम रहेगी. सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय का इस्तेमाल करके किसी प्रदेश की राजनीति में बुनियादी परिवर्तन करने का यह शायद पहला बड़ा उदाहरण है.
राजनीति हमेशा दो परिप्रेक्ष्यों का आपसी खेल होती है. निकटवर्ती परिप्रेक्ष्य और दूरगामी परिप्रेक्ष्य. नीतीश कुमार ने निकटवर्ती परिप्रेक्ष्य पसंद किया. शायद उन्हें लगा होगा कि दूरगामी परिप्रेक्ष्य के लिहाज़ से उनके सामने फिलहाल कोई ख़ास गुंजाइश नहीं है, क्योंकि कांग्रेस उन्हें राष्ट्रीय मंच पर नेता के तौर पर उभरने देने के लिए तैयार नहीं है.
अगर वे दूरगामी परिप्रेक्ष्य पसंद करते, तो उन्हें ख़ास तौर से बिहार और आम तौर से सारे देश मेंं घूम-घूम कर जनसभाएं करनी पड़तीं. मेरा मानना है कि सरकार त्यागने के बाद एक संभावना यह थी कि लोग उन्हें सुनने के लिए उमड़ पड़ते और बिहार से एक नये जयप्रकाश नारायण का जन्म होता. लेकिन भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने के उनके फैसले ने इस संभावना को नष्ट कर दिया है.
नीतीश कुमार बिहार के दूसरे नेता हैं, जिन्होेंने नरेंद्र मोदी का एक सीमा तक विरोध करने के बाद उनका नेतृत्व मान लिया. रामविलास पासवान ने गुजरात में मुसलमानों के संहार के खिलाफ सरकार छोड़ी थी, पर 2014 में वे अपने इस सेकुलरवाद को भूल गये. नीतीश ने पिछले दो चुनाव भाजपा की कड़ी आलोचना करते हुए गुज़ारे हैं. वे भी अपने उस सेकुलरवाद को भूल चुके हैं.
एक तरह से देखा जाये, तो भाजपा के लिए उप्र से भी ज्यादा जरूरी बिहार के महागठबंधन को तोड़ना था. इसकी वजह बिहार की राजनीति के हालिया इतिहास में देखी जा सकती है.
नब्बे के दशक में लालू के शासनकाल की यादवशाही और विकासहीन अराजकता से बेहद परेशान हो कर जनता दल की ग़ैर यादव ताक़तों ने जाॅर्ज फ़र्नांडीस और शरद यादव वगैरह के राष्ट्रीय और नीतीश कुमार के प्रादेशिक नेतृत्व में अलग हो कर समता पार्टी बनायी थी. यही प्रक्रिया धीरे-धीरे चुनावी जीत-हार के विभिन्न चरणों के दौरान विकसित हो कर बिहार के ग़ैर-यादव पिछड़ों, ग़ैर-पासवान अनुसूचित जातियों और मुसलमानों को एक चुनावी ध्रुव पर धकेलती गयी. नीतीश कुमार का बुनियादी समर्थन आधार मुख्य तौर पर कुर्मी जाति तक सीमित ज़रूर था, लेकिन इन आम तौर पर नेतृत्वविहीन समुदायों के लिए वे अपनी निजी ख़ूबियों के कारण आकर्षण का केंद्र बनते चले गये. नीतीश की इन्हीं ख़ूबियों के कारण भाजपा 2015 के चुनाव अतिपिछड़ों और महादलितों के वोट अपनी तरफ़ नहीं खींच पायी.
तमाम कोशिशों के बावजूद वह मुख्य तौर पर द्विज जातियों और भूमिहारों की पार्टी ही बनी रह गयीं. चूंकि उत्तर प्रदेश में नीतीश कुमार जैसा कोई समाजवादी पार्टी की यादवशाही और जंगलराज के विरोध में अलग नहीं हुआ था और बिहार जैसी प्रक्रिया वहां नहीं चली थी, इसलिए भाजपा अति-पिछड़ों और दलितों को अपनी बात समझाने में कामयाब हो गयी. ज़ाहिर है कि भाजपा को पता था कि उत्तर प्रदेश में महागठबंधन को पहले परीक्षण के दौर से गुज़रना होगा, पर बिहार में महागठबंधन अपनी क्षमताएं साबित कर चुका था. भाजपा का काम लालू यादव ने आसान कर दिया.
लालू सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेतृत्व की उस पीढ़ी के प्रमुख सदस्य हैं, जो राजनीतिक भ्रष्टाचार अपनी बपौती समझ कर करता है. उनकी दुनिया में पार्टी, परिवार, जाति, समुदाय, सरकार, प्रशासन, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और सेकुलरवाद एक-दूसरे में घुले-मिले हुए रहते हैं. इस घालमेल के लिए नैतिकता, शुचिता, निष्ठा, पारदर्शिता और प्रशासनिक कुशलता अजनबी हैं. इसलिए भाजपा ने योजनाबद्ध ढंग से लालू की बेनामी संपत्तियों पर क़ानूनी हमला बोला. लालू के पास इन आरोपों को झूठा बताने के तथ्य नहीं थे.
इसलिए उन्हें करना यह चाहिए था कि वे तेजस्वी और तेजप्रताप को अपनी तरफ़ से इस्तीफ़ा दिलवा देते और उनकी जगह अपने दो विश्वस्तों को मंत्री बनवा देतेे. लेकिन न तो लालू इस दूरगामी नज़रिये का परिचय दे पाये, और न ही उनके और नीतीश के बीच पंच फैसला करनेवाली कांग्रेस ऐसा कर सकी. नतीजे के तौर पर महागठबंधन टूट गया.  दूसरी तरफ़ भाजपा की कोशिश है कि उप्र में सपा-बसपा-कांग्रेस महागठबंधन का पहला प्रयोग जिस फूलपुर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में करने की योजना बना रहे हैं, वहां उपचुनाव ही न होने दिया जाये.
फिलहाल योगी सरकार में उपमुख्यमंत्री की भूमिका निभा रहे फूलपुर के सांसद केशव प्रसाद मौर्य को केंद्र में बुला कर भाजपा उप्र में महागठबंधन को प्रयोगात्मक रूप से शुरू होने से पहले ही रोकने की फ़िराक में है. वैसे भी बिहार का अनुभव बताता है कि उप्र में भी सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय का इस्तेमाल करके भाजपा सपा और बसपा को अलग-अलग रख सकती है.