सीरते रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के दो अहम तरीन पहलू

(मौलाना सदरूद्दीन इस्लाही)यूं तो पैगम्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की सीरत का कोई गोशा नहीं जो कमाले इंसानियत का आइनादार न हो। लेकिन इसके दो अहम पहलू ऐसे हैं जो सबसे ज्यादा बुनियादी और अहम है। एक तो यह कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के पास जो हक था उसे आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने खल्क तक, वक्त के वक्त, ज्यों का त्यों पहुंचा दिया।

कभी इस बात को रवा न रखा कि उसका कोई जुज लोगों पर वाजेह होने से रह जाए। आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) को हुक्म था और निहायत जोरदार लफ्जों में था कि -‘‘ऐ रसूल! जो कुछ तुम्हारे रब की जानिब से तुम पर नाजिल किया गया है उसे (ज्यों का त्यों) लोगों तक पहुंचा दो और अगर तुमने ऐसा न किया तो उसका पैगाम पहुंचाने का हक अदा न होगा।’’ (अल मायदा-76)

गुमान नहीं किया जा सकता कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने इतने जबरदस्त फरमान की तकमील में कोई कसर उठा रखी होगी। जबकि आप को यह भी साफ-साफ सुनाया जा चुका था कि अल्लाह तआला की तरफ से आई हुई हिदायतों का छिपाने वाला लानती होता है। इसलिए अक्लन मुमकिन नहीं कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने अल्लाह के दीन को पूरा-पूरा और ज्यों का त्यों लोगों तक न पहुंचा दिया हो।

यह सिर्फ कयास और अकीदत की बात नहीं है बल्कि वाक्यात की कतई और खुली हुई शहादत भी यही है। तेइस बरस की पैगम्बराना जिंदगी में एक सबूत भी इस बात का नहीं मिल सकता कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने इस फरमाने इलाही की तकमील में कोई कोताही दिखाई हो। हालांकि जो कुछ आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) को दुनिया के सामने इस बेलाग तरीके पर रखना होता था। कभी कभी वह माहौल के लिए यकसर नामानूस और सुनने वालों के लिए बिल्कुल नाकाबिले बरदाश्त होता था।

लेकिन माहौल की मसलहतों और सुनने वालों के जज्बाती रद्देअमल का आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने कभी जेहनी दबाव कुबूल नहीं किया और न कभी दावते हक का मफाद आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने इसमें समझा कि उसके ऐसे अजजा को जिन से लोगों के भड़क उठने का ज्यादा अंदेशा हो, काबिले गवारा बनाकर और उनके रंग को कुछ हल्का करके पेश करें।

एक तरफ तो अरब की सरजमीन थी जो सैकड़ों खुदाओं की नियाजमंदी और परस्तिश में गर्क थी दूसरी तरफ कुरआन का तसव्वुर तौहीद था जिसमें किसी भी जिंदा या मुर्दा खुदा की खुदाई के लिए कोई गुंजाइश सिरे से मौजूद ही न थी और जो जरूरी करार देता था कि एक-एक गैरूल्लाह की खुदाई का इंकार किया जाए। शिर्क के ऐसे जबरदस्त मरकज में तौहीद के ऐसे बेआमेज तसव्वुर की मनादी क्या किसी हाल में भी काबिले बरदाश्त समझी जा सकती थी? आज क्रीमलीन के अंदर खड़े होकर मार्कसइज्म के खिलाफ बोलना फिर भी बहुत आसान है।

लेकिन मक्का में और काबा के सामने खड़े होकर लाइलाहा इल्लल्लाह की मनादी करना इससे कहीं ज्यादा मुश्किल था। मगर दुनिया जानती है कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) ने यह मनादी ठीक उन्हीं लफ्जों में की, हर मकाम और हर मौके पर की और इस तरह की कि न तो कभी आपके लब व लहजे में कोई कमजोरी आई और न लफ्जों के मायनी व मफहूम को खुशनुमा बनाने का आप के अंदर कभी कोई रूझान पैदा हुआ।

हालांकि इस तरह की रवादाराना पालीसी के अख्तियार कर लेने का खुद मुखालिफ कैम्प से भी खुला इशारा किया गया था और उस वक्त किया गया था जब ताकत व एक्तेदार के एबतार से वह आप के मुकाबले में कई गुना ज्यादा था। लेकिन इन बातों का भी और वह भी ऐसे सख्त हालात में, आप के बरमला एलाने हक पर कोई असर नहीं पड़ा, अगर पड़ा तो सिर्फ यह कि उसमें और ज्यादा शिद्दत आती गई और मुखालिफीन का हर ताजा इजहारे नापसंदीदगी दावते तौहीद की एक ताजा तलकीन व तौजीह का सबब बनता चला गया।

जब तौहीद जैसे इंकबाली और माहौल के लिए सबसे ज्यादा नाकाबिले बरदाश्त तसव्वुर के बारे में आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) की साफ बयानी का यह हाल था तो इस्लाम के दूसरे अकीदे और तालीमात के बारे में किसी लटकावे का सवाल ही कहां बाकी रह जाता है? सीरते पाक का दूसरा अहम तरीन पहलू यह था कि दाई-ए-इस्लाम होने के साथ-साथ आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) अव्वलुल मुस्लिमीन भी थे। आप ने जिस अकीदे, जिस उसूल और जिस हिदायत की भी दूसरों को तलकीन की उसके तकाजों पर सबसे पहले खुद अमल किया। आप जिस हक के मुबल्लिग थे उसकी तब्लीग आप ने एक साथ अपनी जबान और अपने अमल दोनों से की।

अपने साथियों को अगर यह ताकीद फरमाई कि अल्लाह के जिक्र और हम्द तस्बीह में ज्यादा से ज्यादा मशगूल रहो तो दुनिया ने आप को भी सबसे पहले और सबसे ज्यादा यादे मौला में मशगूल देखा। अगर दूसरे अहले ईमान को आप की यह नसीहत थी कि हक के दुश्मनों की ईजा रसानियों का सब्र से मुकाबला करते रहो तो उनके सामने खुद भी सरापा सब्र व सिबात बने रहे। जब जबाने मुबारक ने यह एलान किया कि उन जालिम दुश्मनों का अब हाथ से मुकाबला करो तो मैदाने जंग की तरफ सबसे पहले उठने वाले कदम आप ही के थे और अगर कभी गैर मामूली हालात पैदा हो जाने के बाइस साथी मैदान छोड़ बैठे तो उस वक्त भी हक का यह सतून अपनी जगह से न हिला।

जंगी जरूरत से अगर खंदके खोदने का फैसला हुआ तो दूसरों की तरह आप के हाथों से भी फावड़े चलते देखे गए। तंगहाली के आलम में अगर औरों के पेट पर एक-एक पत्थर बंद्दे थे तो दामने मुबारक के नीचे दो-दो पत्थर बंद्दे पाए गए। गरज कि दीनी एहकाम व हिदायत का कोई जुज नहीं और बंदगी का कोई पहलू नहीं जिसमें आप का अपना अमल दूसरों की रहनुमाई के लिए आगे-आगे मौजूद न रहा हो। यह सिर्फ आप का जज्बा-ए-अमल ही न था बल्कि आप को हुक्म भी इसी बात का था-‘‘ ऐ नबी! कह दो मुझे हुक्म है कि अल्लाह की बंदगी करूं ताअत को उसी के लिए (खालिस) करते हुए और मुझे हुक्म है कि मैं सबसे पहला ताअत गुजार बनूं।’’(अल जमर-11)

अल्लाह तआला के नजदीक आप के ‘‘अव्वलुल मुस्लिमीन’’ होने की अहमियत इतनी ज्यादा थी कि बाज अवकात जब मसालेह ने तकाजा किया तो आप की निजी जिंदगी की वह आजादी भी बाकी न रहने दी गई जो शरीअत की तरफ से हर शख्स को मिली हुई है। मसलन निकाह का मामला इंसान का जाती मामला है। इस बात का फैसला करने में वह बिल्कुल आजाद है कि शरई हुदूद और मारूफ के अंदर वह जिस औरत से चाहे निकाह करे और जिस से चाहे न करे।

मगर एक खालिस दीनी मसलेहत की बिना पर आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) को एक खातून (हजरत जैनब) से निकाह कर लेने का मुकल्लिफ बना दिया गया। तफसील यह है कि मुंह बोले बेटे की मुतलका या बेवा से निकाह अरबे जाहिलियत में जायज नहीं समझा जाता था।

दूसरी तमाम जाहिली और गलत रसूम की तरह इस रस्म को भी इस्लाम ने मौकूफ करार दे दिया। मगर पुरानी रस्मों का असर मुसलसल तआमुल की वजह से समाज के जेहन मे जिस गहराई तक उतरा हुआ होता है उसकी वजह से इस रस्म के खिलाफ अमल की इब्तिदा करना सख्त मुजाहिदे की बात थी। इत्तेफाक की बात है कि हजरत जैद बिन हारिसा (रजि0) ने जो आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के मुँह बोले बेटे थे, अपनी बीवी हजरत जीनत को तलाक दे दी।

अगरचे बाज अहम मसालेह का तकाजा आप यही समझते थे कि हजरत जीनत को अपने अक्द निकाह में ले ले। मगर वही मुंह बोले बेटे की मुत्तलका होने की बिना पर इस बात का पूरा अंदेशा कि समाज में भी इस निकाह का अच्छा खासा खराब रद्देअमल होगा, झिझक में डाले हुए था।

जाहिर है कि जहां तक मामले की आम नौइयत का ताल्लुक था यह आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) का बिल्कुल निजी मामला था और आप के लिए इस लिहाज से दोनों राहें खुली थीं, निकाह कर लेने की भी और न करने की भी। मगर अल्लाह तआला का फैसला यह हुआ कि आप को यह निकाह जरूर करना चाहिए।

बल्कि कुरआन मजीद के जाहिर अल्फाज से तो यह मालूम होता है कि खुद अल्लाह तआला ही ने इस निकाह के रिश्ते को जोड़कर इसका एलान फरमा दिया। ऐसा क्यों हुआ? और अल्लाह तआला ने आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के इस जाती मामले में आप की आजादी-ए-अमल क्यों बरकरार न रहने दी? इस का जवाब खुद उसी के लफ्जों में सुनिए -‘‘ हम ने उसे तुम्हारे निकाह में दे दिया ताकि अहले ईमान के लिए अपने मुंह बोले बेटो की बीवियों से, जबकि वह उनसे अपनी गरज पूरी कर चुकी, निकाह कर लेने में कोई तंगी न रह जाए।’’ (अल एहजाब-73)

चूंकि उम्मत पर से एक नारवा बंदिश को खत्म करना था और उस सिलसिले में दूसरों के लिए जबरदस्त नफ्सियाती रूकावटें थी इसलिए यह ‘‘अव्वलुल मुस्लिमीन’’ ही का काम था कि आगे बढ़े और बढ़कर राहे अमल खोल दे। इस एक मिसाल से पूरी सूरत वाकई अच्छी तरह समझ में आ जा सकती है और अंदाजा कर लिया जा सकता है कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के ‘‘अव्वलुल मुस्लिमीन’’ होने के क्या मायनी थे?

अब जरा इस बात पर भी गौर कीजिए कि आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) यह दोनों इम्तियाजी खुसूसियतें जिंदगी भर इतनी मजबूती से क्यों अपनाए रहे? क्या बात थी कि सीरते पाक के सरापे में यह दोनों अवसाफ इतनी नुमायां अहमियत के साथ मौजूद नजर आ रहे हैं? बिला शुब्हा इसका आसान और सीद्दा जवाब तो यही है कि अल्लाह तआला का आप को हुक्म ही इस तरह का था। लेकिन इस जवाब पर फिर यह सवाल पैदा होता है कि अल्लाह तआला का यह हुक्म था क्यों? आखिर इस हकीकत को तो हकीकत ही माना जाएगा कि उसका कोई हुक्म बिला वजह नहीं होता बल्कि हर हुक्म किसी न किसी गहरी हिकमत पर ही मबनी होता है। फिर सोचिए कि आप को जो काम सुपुर्द करके भेजा गया था और जो दीने हक की तब्लीग व अकामत के सिवा और कुछ न था, इसके पेशेनजर इन दोनों बातों का हुक्म किन मसलेहतों और हिकमतों का हामिल हो सकता है?

जहां तक मारूफ अंदाजे फिक्र का ताल्लुक है वह तो किसी ऐसी गैर मामूली इंकलाबी दावत व तहरीक के सिलसिले में, जो इंसानी ढंाचे को पूरी तरह उद्देड़ देना और उद्देड़ कर बिल्कुल नई बुनियादों पर फिर से तामीर करना चाहती हो, इस तरह की बातों को कोई अहमियत नहीं देता है। न सिर्फ यह कि कोई अहमियत नहीं देता, बल्कि पहली चीज को तो दानिशमंदी के भी खिलाफ समझता है। इस बारे में उसका फैसला यह है कि जिस तहरीक का मंशा समाज में कोई गैर मामूली तब्दीली लाना हो इब्तिदा ही में उसका वाजेह और साफ साफ तआर्रूफ अवामी जज्बात को लाजिमन भड़का दिया करता है।

इसलिए हुस्न तदब्बुर का तकाजा यही है कि अपने अस्ल और आखिरी मुद्आ का पहले ही कदम पर क्या, मुद्दतों पता न चलने दिया जाए। बल्कि लोगों की निगाहें देखकर बातें की जाएं और उनकी कुवते बरदाश्त की हद तक उसे कम वहशत अंगेज बल्कि खुश नुमा बनाकर पेश किया जाए। फिर जब एक खास हद तक लोग हमवार हो जाएं और कुछ ताकत भी फराहम कर ली जाए तब कहीं जाकर अपने अस्ल मुद्आ का बरमला इजहार किया जाए।

यह फैसला कुछ आज ही के मारूफ अंदाजे फिक्र का नहीं है बल्कि उस जमाने में और उस मुल्क में भी लोगों के सोचने का अंदाज कुछ इसी तरह का था जिसमें आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) मबऊस फरमाए गए थे। इसलिए आप को और आपके मुखलिस साथियों को इसी बिना पर एक मुद्दत तक फरेबखुर्दा और बेवकूफ करार दिया जाता रहा। अब अगर अल्लाह तआला का हुक्म और आप (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) का तरीका-ए-कार इस मारूफ अंदाजे फिक्र व तरीका-ए-कार के बिल्कुल मुखालिफ रहा तो इसकी वजह इसके सिवा और क्या हो सकती है कि दावते हक का मफाद इसी बात का मुतकाजी था।

क्योंकि यह बात हकीम व खबीर खुदा की शान में बईद है कि वह अपने रसूल को ऐसी पालीसी अख्तियार करने की हिदायत करे जो उसके मकसदे बअसत के हुसूल में मुफीद होने के बजाए उल्टा उसे नुक्सान पहुंचाने वाली हो।

हकीकत यह है कि गैर इस्लामी तहरीकों पर इस्लामी दावत को कयास करना बुनियादी तौर पर गलत है। गैर इस्लामी तहरीकों के लिए अपने मकसद का गोल मोल इजहार और अपने उसूल व नजरियात का पंचरूखा तआर्रूफ जरूर मुफीद मतलब होता है बल्कि शायद जरूरी भी होता है क्योंकि यही पालीसी उनके मिजाज से हम आहंग और उनकी फितरी बेमायगी के हस्बेहाल होती है। मगर दावते हक को यह पालीसी कभी रास नहीं आ सकती।

क्योंकि इसका अख्तियार करना खुद इस बात की दलील बन जाएगा कि इस दावत को अपनी गरज व गायत की हक्कानियत पर खुद ही इत्मीनान नहीं है और अमलन होगा यह कि इब्तिदा के साथी बीच ही में साथ छोड़ जाएंगे, असरदार इल्जामात और माकूल एतराजात का एक तूफान उठ खड़ा होगा और अगर बहजार दिक्कत व रूसवाई किसी मंजिल तक रसाई हो भी गई तो वह कयामेदीन की मंजिल बहरहाल न होगी।

इसके अलावा इस पालीसी से दावते हक का मिजाज भी किसी तरह मेल नहीं खाता। क्योंकि अपने मकसद व मुद्आ का यह तर्जे तआर्रूफ बजाए खुद एक मुहज्जब किस्म का झूट है और झूट का सहारा पकड़ने का नग चाहे वह कितना ही मुहज्जब क्यों न हो, उस हक की खुद्दार और बेलाग फितरत कभी गवारा नहीं कर सकती जो जमीन पर आया ही इसीलिए है कि उसे झूट और बातिल से बिल्कुल पाक कर दे। इन वजहों को अगर सामने रखिए तो मालूम होगा कि अपने मकसदे दावत का वाजेह एलान व इजहार महज आपकी जुर्रते हक गोई का नतीजा न था बल्कि इसके पीछे यह जरूरत भी काम कर रही थी कि इस्लाम की तब्लीग व अकामत की मंजिल तक रसाई इसके बगैर मुमकिन ही नहीं थी।

रहा सीरते पाक का दूसरा पहलू, तो अरचे दूसरी तहरीकों में इसे खिलाफे दानिश नहीं समझा जाता, मगर जरूरी भी नहीं माना जाता। इसलिए इस तरह की तहरीकों का अगर आप जायजा लें तो पाएंगे कि उनके अलमबरदार अपने मसलक के चाहे बड़े अच्छे ‘मुस्लिम’ रहे हों मगर ‘‘अव्वलुल मुस्लिमीन’’ हरगिज नहीं थे और इसके बावजूद भी वह कामयाब हो गई। लेकिन दावते इस्लामी का मामला इस बाब में भी बिल्कुल मुख्तलिफ है।

अगर इस दावत का पेश करने वाला एक तरफ तो उसे खुदा की तरफ से आई हुई कहता और उसकी पैरवी ही पर दारैन की फलाह मौकूफ ठहराता हो, दूसरी तरफ उसका अपना अमल इसके आला तकाजे की जिंदा मिसाल न पेश करता हो तो दुनिया उसकी तरफ कभी नहीं आ सकती। इस किस्म की ‘‘तब्लीगे हक’’ को तब्लीगे हक कहना ही गलत है। उसे तो हक की बस पेशेवराना वकालत कह सकते हैं।

इस्लाम की तसव्वरियत ‘‘अमलियत’’का जामा किस तरह पहनती है, यह बात उस वक्त तक जानी नहीं जा सकती थी जब तक कुरआन के साथ रसूल भी न आता और वह अपनी पूरी जिंदगी को इस्लामी तसव्वुरात की, इस्लामी आमाल की और इस्लामी अखलाक की एक जीती जागती तस्वीर बनाकर लोगों के सामने न रख देता।

इसलिए हकीकत वाकई यह है कि सीरते रसूल के बगैर इस्लाम को ठीक तौर से समझा ही नहीं जा सकता और अगर एक चीज के बगैर इस्लाम को ठीक-ठीक समझा भी नहीं जा सकता तो जाहिर बात है कि उसकी ठीक-ठीक पैरवी का इमकान तो और दूर जा पड़ता है। इस हकीकत के पेशेनजर सीरते नबवी का जिक्र व मुताला तस्कीने अकीदत का नहीं बल्कि हिफाजते दीन व ईमान का और अदाए हुकूक इस्लाम का मसला बन जाता है, इसलिए इस तजकिरे और मुताले की अस्ल जरूरत यह है कि उससे मोमिन होने की जिम्मेदारियों से ओहदाबरा होने का तरीका मालूम किया जाए।

सीरते रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) का मुताला अगर इस सही नुक्ता-ए-नजर से किया जाए तो साफ महसूस होगा कि सीरत के यह दोनों पहलू, जिनका ऊपर की लाइनों में एक मुख्तसर सा जायजा लिया गया है, अपनी अस्ल हैसियत ही के लिहाज से अहम तरीन नहीं है बल्कि आज कल मिल्लते इस्लामिया जिस हालत में है उसके लिहाज से भी अहम तरीन है। आज कोई आंख नहीं जो मिल्लत का हाल देखकर ठंडी रह जाए और कोई जबान नहीं जो उस पर मातम सरा न हो।

यह सूरतेहाल जिस वजह से पैदा हुई है उसकी इससे ज्यादा सही और मौंजू ताबीर और कोई नहीं हो सकती कि सीरते रसूल (सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) के इन दोनों पहलुओं से, जो सबसे ज्यादा अहम थे, मिल्लत ने सबसे ज्यादा गफलत अख्तियार कर रखी है। इस्लाम जितना कुछ और जैसा कुछ है, उसे ज्यों का त्यों जाहिर करना एहतियात और जमाना शनासी के खिलाफ समझा जाता है और ऐसा समझना दानिशमंदी का फैशन बन गया है और अगर बाज हलकों में ईमानी खुदी कुछ जोर दिखाती भी है तो सिर्फ जबानी एतराफ व इजहारे ख्याल की हद तक।

वरना जहां तक अमली इकदाम का ताल्लुक है उसकी राह में यहां भी वही एहतियात पसंदी चट्टान बनकर आ खड़ी होती है। इस तर्जे फिक्र व अमल का नतीजा यह होता है कि इस्लाम के जिन हिस्सों पर अमल की कोशिश माहौल को पसंद नहीं होती उनका या तो जबान पर जिक्र नहीं आने पाता, या फिर अकीदत व तहसीन का खिराज अदा करके खामोशी अख्तियार कर ली जाती है और उनकी हद तक अमली जिंदगी बदस्तूर दूसरी लाइनों ही पर सफर करती रहती है।

जिस शख्स को भी इस्लाम के मुताले का मौका मिला है वह इस हकीकत को माने बगैर नहीं रह सकता कि वह बंदगी का एक जामे निजाम हैं जिससे इंसानी जिंदगी का कोई गोशा भी बाहर नहीं। वह अपने पैरूओं से जिस इताअत का मतालबा करता और जिस बंदगी-ए-रब की बजाआवरी चाहता है उसकी हदें अगर मस्जिद के गोशा-ए-जिक्र से शुरू होती है तो ममलिकत के नज्म व इंसराम से पहले खत्म नहीं होती। लेकिन क्या आज मिल्लत को देखकर न सही, उसकी बातों को सुनकर ही कोई इस्लाम को ऐसा जान और समझ सकता है? यकीनन नहीं।

क्योंकि हमारी बहुत बड़ी अक्सरियत या तो इस हक बात से वाकिफ ही नहीं या उसे जबान पर लाने की भी जुर्रत खो बैठी है। वह इस्लाम की वजाहत आमतौर पर इस अंदाज में करती रहती है जिससे वह हमारी जिंदगी के एक प्राइवेट मामले से ज्यादा और कुछ नहीं साबित होता, जिस के साथ इज्तिमाई जिंदगी में किसी भी ‘‘इज्म’’ को लाकर आसानी से जोड़ दिया जा सकता हो, बल्कि ज्यादा मोहतात लोग तो एलानिया फरमाया करते हैं कि दीन को दुनिया से और मजहब को सियासत से कोई वास्ता नहीं, दोनों के दायरे बिल्कुल अलग-अलग हैं। इस बड़ी अक्सरियत से आगे बढि़ए तो उन लोगों में से भी बहम्दोल्लिाह इस जहल और इस कमताने हक दोनों बीमारियों से महफूज है, बहुतों को एक दूसरा रोग चिमटा दिखाई देगा।

वह अपनी तकरीरों और तहरीरों मे ंयह फरमाते तो जरूर नजर आएंगे कि इस्लाम ही एक बरहक दीन है, इंसानी और आलमी मजहब है, एक जामे निजामे हयात है, दुनिया को अम्न व सलामती की तलाश है तो यह तिरयाक उसे इस्लाम ही अता कर सकता है और इंसानी जिंदगी के सारे मसायल का हल इसी की तालीमात में मिल सकता है लेकिन उनकी अमली दिलचस्पियों को देखिए तो मालूम होगा कि यह उनकी सिर्फ ‘‘हदीस बजम’’ है जिसके अंदर ‘‘हदीस रिज्म’’ बनने की कोई उमंग मुश्किल ही से महसूस की जा सकती है।

इजहार इस ईमान, अकीदे और यकीन का है कि इंसानियत की फलाह सिर्फ इस्लाम से वावस्ता है और इंसानी मसायल की कुंजी सिर्फ कुरआन है, अगर लायहा-ए-अमल में हर निजाम की खिदमत गुजारियों के लिए पूरी पूरी जगह, अगर जगह नहीं तो सिर्फ इस्लामी निजाम की खातिर कोशिश के लिए। बिलाशुब्हा हालात का दबाव कम सख्त नहीं मगर ‘‘अव्वलुल मुस्लिमीन’’ का नमूना इस बात का ज्यादा हकदार है कि इसके तकाजे पूरे किए जाएं। काश्! सीरते रसूल का मुताला उम्मते रसूल को यह हकीकत समझा देता कि उसकी खोई दौलत वापस नहीं मिल सकती, जब तक कि सीरते पाक के इन दोनों अहम तरीन पहलुओं का जुर्रत और बेखौफी से इत्तबा न किया जाए।

‍‍‍‍बशुक्रिया: जदीद मरकज़