सीरिया: अमेरिका, सऊदी अरब सहित कई देश मिलकर नहीं हटा सके असद को, रुस के बदौलत बनी रही सरकार!

भाई की मौत के बाद राजनीति में आए एक शहजादे की कूटनीति और युद्धनीति दुनिया के ताकतवर देशों से अपना पीछा छुड़ाने में कामयाब हो गई. सीरिया के शासन से असद को हटाने की बात अब कोई नहीं कर रहा. 6 साल में हालात इतना कैसे बदल गए?

याद कीजिये साल 2011 का वो वक्त जब जनवरी के आखिरी महीने में कुर्द शहर अल हसकाह में हसन अली अकलेह ने पेट्रोल में भिंगो कर खुद को आग लगा ली. हसन ने यह कदम सीरियाई शासक बशर अल असद के शासन के प्रति विरोध जताने के लिए उठाया था.

कुछ महीने पहले ट्यूनीश में इसी तरह की पहल ने अरब वसंत के आंदोलन को चिंगारी दिखाई थी. सीरिया में भी आंदोलन की आग भड़कने लगी, विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया और आपातकाल की नौबत आ गई.

एक आंदोलन सड़क और गलियों में हो रहा था और दूसरा सोशल मीडिया पर. हालात बिल्कुल वही बनने लगे जो ट्यूनीशिया, लीबिया और मिस्र में दिखे थे. अशांत सीरिया की आग को इराक से उभरे इस्लामिक स्टेट ने मौका माना और सीरिया पर कब्जे के लिए कूच कर गया.

एक साल के अंदर ही सीरिया पूरी तरह से जंग के मैदान में तब्दील हो गया. एक तरफ असद के विद्रोही थे, दूसरी तरफ इस्लामिक स्टेट, असद सरकार इन दोनों से एक साथ जूझ रही थी.

फिर सीरिया की जंग में यूरोप, अमेरिका, तुर्की सऊदी अरब समेत तमाम देश अपनी भूमिका लिखने लगे. कोई हथियार दे रहा था तो कोई गोला बारूद, कोई शरणार्थियों को संभाल रहा था तो कोई वहां के संसाधनों नजर गड़ाए था, पूरा सीरिया जंग का मैदान बन गया और तमाम दिशाओं में मोर्चे खुल गए.

असद से देश का शासन छोड़ने की मांग तेज होने लगी. विरोधियों की इन आवाजों को अमेरिका, पश्चिमी ताकतें और सऊदी अरब, इस्रायल का भी साथ मिला लेकिन असद टिके रहे. अभी यह कयास लग ही रहे थे कि असद का क्या होगा तभी एक बड़ी घटना हुई.

अंतरराष्ट्रीय विरोध को नजरअंदाज कर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इस जंग में असद का साथ देने की बात कही और अपने जहाज और दूसरे सैनिक साजो सामान के साथ युद्ध के मोर्चे पर आ गया. रूस का साथ आना असद और सीरिया के लिए सबसे बड़ा गेमचेंजर साबित हुआ.

अब तक लुक छिप कर समर्थन दे रहा ईरान भी खुल कर असद को समर्थन देने लगा. असद के हौसलों को बल मिला और विरोधियों के लिए यह जंग मुश्किल हो गई.

अमेरिका विरोधियों की मदद कर रहा था लेकिन सीधे जंग में उतरने से उसने पहले ही इनकार कर दिया था. अंतरराष्ट्रीय मामलों की भारतीय परिषद में सीनियर फेलो फज्जुर रहमान कहते हैं, “असद की सत्ता के लिए सबसे बड़ी सफलता बनी रूस का समर्थन हासिल होना.

रूस के आने के बाद सीरिया की जंग पूरी तरह से इस्लामिक स्टेट के खिलाफ हो गई और असद को हटाने या संविधान बनाने जैसी जो बातें हो रही थीं वो बंद हो गईं.” फज्जुर रहमान यह भी कहते हैं, “अमेरिका और दूसरे देश जो असद को हटाने की बात कह रहे थे उनके पास सीरिया के भविष्य की कोई योजना नहीं थी कि असद के हटने के बाद क्या होगा.

असद को लेकर दो ही देश सबसे ज्यादा गंभीर थे एक सऊदी अरब और दूसरा ईरान. एक असद को हटाना चाहता था और दूसरा असद के साथ था लेकिन रूस के आने के बाद यह बातचीत ही बंद हो गई.”

रूस के आने के साथ साथ बाद एक एक करके सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर सब धीरे धीरे पीछे हट गए. ये देश पीछे हुए और तुर्की के रूप में एक नये खिलाड़ी ने इस जंग के परिदृश्य में कदम रखा जो अपने साथ ना सिर्फ सेना बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक ताकत भी लेकर आया.

अब रूस, सीरिया, ईरान और तुर्की मिल कर एक ऐसा गुट बन गया जिसे असद से कोई आपत्ति नहीं थी. दूसरी तरफ असद के विरोधी बिखर रहे थे.

इस्लामिक स्टेट पर हर तरफ से हमला हो रहा था और सीरिया के विद्रोही गुट के पास इतनी ताकत नहीं थी कि वो असद को चुनौती दे सके. दुनिया के बाकी देशों का ध्यान सिर्फ इस्लामिक स्टेट और आतंकवाद को मिटाने पर लगा हुआ था.

साभार- ‘डी डब्ल्यू हिन्दी’