उत्तराखंड के राजनीतिक संकट में अधिक उलझन पैदा कर दी गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि अब हरीश रावत की कांग्रेस सरकार नहीं कर सकती। कल ही की बात है कि उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन लगाने को निरस्त करते हुए सरकार के प्रदर्शन को बहाल कर दिया था। केंद्र में नरेंद्र मोदी आभरकयादत भाजपा सरकार ने लोकतंत्र के क़द्र स्थान राष्ट्रपति के कार्यालय को राजनीतिक हितों की पूजा करने का स्थान बनाते हुए उत्तराखंड में पिछले महीने राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश की है और राष्ट्रपति से सिफारिश की पुष्टि भी की।
एक लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को संविधान के अनुच्छेद 356 के हवाले से रौंदते करने का सिलसिला वर्षों से जारी है। विभिन्न शीर्षकों से केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षा का दोहन प्रयासरत रहती है। उत्तराखंड जैसे छोटे पहाड़ी राज्य में बड़ी राजनीति की जा रही है। इस राजनीतिक खेल के मूल मोहरे भाजपा के नेता हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर हुक्म जारी करते हुए 27 अप्रैल को अगली सुनवाई तय की है। तब तक उत्तराखंड राष्ट्रपति शासन के तहत ही रहेगा।
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को कल जो राहत और प्रसन्नता मिली थी आज दूर हो गई। रावत ने हाईकोर्ट के फैसले के बाद कल रात कैबिनेट की बैठक बुलाई और 11 नए फैसले किए थे। सरकार की यह कोशिश बेकार गई। भाजपा की कोशिश यह है कि उत्तराखंड में उसे शासन का मौका मिल जाए। कांग्रेस में फूट डाल कर कुछ सदस्यों को देशद्रोही करवाया गया। स्पीकर ने कांग्रेस के 9 विधायकों को अयोग्य भी घोषित किया था। सुप्रीम कोर्ट की यह कार्यवाई केंद्र के अनुरोध पर किया गया।
अब उत्तराखंड की समस्या सुप्रीम कोर्ट की अदालत में है तो अब सभी निगाहें उच्च न्यायालय के फैसले की ओर टिकी हुई हैं। बोमाई मामला लगभग दो दहों बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अनुच्छेद 356 के उपयोग और दुरुपयोग की हुज्जत पर अपनी कानूनी प्रकाश डालने की कोशिश की है।
उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के बाद केंद्र की भाजपा सरकार के मंत्रियों और नेताओं ने जिस तरह के कमेंट्स किए थे उसे अपने राजनीतिक उद्देश्यों उजागर हुए थे। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उत्तराखंड को एक टैक्सट पुस्तक का उदाहरण दिया था जहां शासन प्रणाली में बड़ी गड़बड़ी हो गया था। राज्यों में शासन के लिए संकट पैदा करने का असली कारण सत्ताधारी पार्टी के सदस्यों की स्वार्थी भी होती है। अगर सत्तारूढ़ पार्टी के मंत्रियों और सदस्यों अपनी जाति में एकजुट हों तो कोई भी पार्टी फूट का शिकार बनाने की कोशिश नहीं करती।
अगर सत्तारूढ़ दल के सदस्य अपने ही घर में अराजकता पैदा करने की कोशिश करें तो उसका लाभ दुश्मन समूह को होगा। उत्तराखंड के कांग्रेस सदस्यों का जब भाजपा की ओर झुकाव देखा गया तो हरीश रावत सरकार को बेदखल करने की पहल की गई। यहां केंद्र की भूमिका को महत्व प्राप्त हो गई है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की अपील को महत्व देकर बेंच ने मामले को सुनवाई के लिए स्वीकार किया और आदेश विचाराधीन जारी किया।
बोमाई मामले प्रकाश में उत्तराखंड के हरीश रावत कैबिनेट को भी शक्ति परीक्षण से गुजरने का मौका दिया जाता है तो सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जजस अपने पूर्ववर्ती जजस के फैसले का पालन ना करते हुए पाए जाएंगे। मगर केंद्र की ओर से जब कभी अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल होता है यह विवादास्पद बन जाता है। संविधान के इस अनुच्छेद 356 बहुत ही अब्तरी हालत में प्रयोग करने योग्य है मगर किसी लोकतांत्रिक सरकार को महज राजनीतिक उद्देश्यों के इरादे से बेदखल करने के लिए इसका सहारा लेने को हनन की परिभाषा में आता है।
अब सुप्रीम कोर्ट को ही फैसला करना है कि क्या उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार को सदन में बहुमत साबित करने का मौका दिया जाए या राष्ट्रपति शासन बनाए रखते हुए ताजा चुनाव करवाए जाएं। भाजपा यहां अपने अटार्नी जनरल द्वारा केस को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश जरूर करेगी। अदालत को यह अधिकार है कि वह उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू करने केंद्र के निर्णय की उपयोगिता का सवाल उठाया मगर जहां समस्या के आधार तुच्छ पार्टी राजनीति में तय है इस तरह की घटनाओं पर कानून और अदालतों के फैसले मौजूद हैं मगर उन पर अमल जुनून राजनीतिक इच्छा के अधीन बना दिया जाए तो संकट दूर करने में मदद नहीं मिलेगी।
केंद्र ने अपनी नीयत पर पर्दा डालने और जनता को कंयू करने के लिए अदालत का सहारा लिया है। हालांकि तथ्य यह है कि सच सच होता है और यह सच सब होता है। उत्तराखंड का मामला भी एक ओर राजनीतिक शक्ति संघर्ष है और दूसरी तरफ संवैधानिक उपयोगिता के संरक्षण। उत्तराखंड की हाईकोर्ट ने जब फैसला सुनाते हुए यह कहा कि राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए केंद्र सरकार को आदेश न्यायिक रद्दीकरण की आवश्कता है तो इस समय कांग्रेस और भाजपा दो बड़ी राजनीतिक ताकतें हैं और उन्हें पार्टी के आंतरिक कारणों के कारण अस्थिरता के खतरों मुठभेड़ इसलिए प्रत्येक पार्टी को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।
भारतीय सर्राफा बाजार और सरकार
भारत में इस साल सामान्य से बेहतर मानसून की पेश क़ियासी और मुद्रास्फीति में संतुलन बनाए रखने की रिपोर्टों के बीच यह उम्मीद जताई गई है कि उत्पादन में वृद्धि होगी और आरबीआई ने अपनी नीति में नरमी लाई है तो इससे शेर मार्किट में उछाल भी दर्ज किए जाने की उम्मीद है। डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य भी पहले से बेहतर दिख रही है। यह प्रति डॉलर 66.10 से 66.71 रुपये के बीच स्थिर है लेकिन मोदी सरकार की सुधार नीतियों के बावजूद रुपये के मूल्य अधिक स्थिर नहीं हो सकी। पिछले दो सप्ताह के दौरान भारतीय मुद्रा के मूल्य 38 पैसे घट गई। इसी तरह भारतीय शेर मार्किट में किसी क़दर सुधार नोट की गई है। इस सप्ताह 211.39 िशारया या 0.82 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत में गर्मियों के दौरान शादियों का सीजन होता है इसलिए सोने की कीमत में क्रमिक वृद्धि की प्रवृत्ति दर्ज किया गया। सोना और चांदी की मांग में वृद्धि के साथ ही इसकी कीमतें भी बढ़ रही हैं। वैश्विक स्तर पर सोने की कीमत पिछले पांच सप्ताह से ऊंची दर्ज की गई। जीवेलरस शिकायतों के बीच गहने ाकसाइज़ ड्यूटी के भुगतान के आसपास किया गया विधि पर भी जीवेलरस ने आपत्ति किए हैं। सरकार ने पूर्व आर्थिक सलाहकार अशोक लहरी की आभरकयादत एक पियानल गठन किया है जो जीवेलरस शिकायतों की सुनवाई करते हुए उनके निवारण की कोशिश की जाएगी। राजधानी दिल्ली में सोने की कीमत प्रति दस ग्राम या एक तोला 29,550 और 29,400 रुपये दर्ज की गई और यही सोना जीवेलरस से खरीदने पर प्रति दस ग्राम 29,900 रुपये और 29,750 रुपये में उपलब्ध हो रहा है। इसी तरह चांदी की कीमत में भी क्रमिक वृद्धि दर्ज किया जा रहा है। लेकिन इसकी कीमत प्रति किलोग्राम 41,230 तक पहुंच गई थी लेकिन अब इसकी कीमत 39,985 रुपये प्रति किलोग्राम दर्ज की गई है। शादियों के सीजन के मद्देनजर सरकार अगर खरीदारों से अधिक व्यापारियों को प्राथमिकता देने पर ध्यान दे तो सर्राफा मार्किट में कीमती धातुओं पर मूल्य नियंत्रण बेकाबू हो जाएगा।