हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ी० बयान करते हैं कि सैय्यदना उमर फ़ारूक़ रज़ी० की आदत थी कि हर नमाज़ के बाद कुछ देर लोगों के पास बैठते थे, किसी की कोई ज़रूरत होती तो इस पर ग़ौर करते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि एक से ज़्यादा नमाज़ें पढ़ चुके, लेकिन आदत के ख़िलाफ़ किसी भी नमाज़ के बाद ना बैठे। मैं सैय्यदना उमर फ़ारूक़ रज़ी० के दरवाज़े पर पहुंचा और उनके मुलाज़िम से पूछा “क्या अमीर उल मोमिनीन बीमार हैं?” इसने जवाब दिया नहीं। इसी दौरान सैय्यदना उसमान ग़नी रज़ी० भी अमीर उल मोमिनीन से मुलाक़ात के लिए तशरीफ़ लाए।
ग़ुलाम ने हमारे लिए इजाज़त हासिल की। हम दोनों को अंदर बुलाया गया। जब हम सैय्यदना उमर फ़ारूक़ रज़ी० की ख़िदमत में पहुंचे तो देखा कि इनके सामने माल-ओ-ज़र का ढेर लगा हुआ है। सैय्यदना फ़ारूक़ आज़म रज़ी० ने फ़रमाया मैंने सब अहले मदीना के बारे में ग़ौर-ओ-फ़िक्र किया है, लेकिन तुम दोनों से बड़ा किसी का ख़ानदान और अयाल नहीं है। ये माल ले जाओ और इसे अपने लोगों में तक़सीम कर दो और अगर बढ़ जाए तो वापस कर देना।
हज़रत इब्न ए अब्बास रज़ी० फ़रमाते हैं कि ये सुन कर मैं घुटनों के बल बैठ गया और अर्ज़ किया अगर माल बच जाए तो वो आप हमें दे दें। ये सुनकर वो तिलमिला उठे और फ़रमाया ऐसा वक़्त कहाँ होता था, जब हुज़ूर स०अ०व० और आप के अस्हाब गोश्त के बारीक लंबे टुकड़ों पर गुज़ारा करते थे?।
मैंने अर्ज़ किया अगर अल्लाह तआला उस वक़्त मुसलमानों को फ़ुतूहात से नवाज़ता तो रसूल स०अ०व० आप जैसा सुलूक ना करते।
सैय्यदना फ़ारूक़ आज़म रज़ी० ने पूछा फिर वो क्या करते ? मैंने अर्ज़ किया वो हमें भी खिलाते और ख़ुद भी खाते। ये सुन कर हज़रत सैय्यदना उमर फ़ारूक़ रज़ी० रो पड़े, उनकी हिचकी बंध गई और पसलियां हिलने लगीं। फिर फ़रमाया मेरी तलब और तड़प तो ये है कि मैं ख़िलाफ़त के मुआमलात में बराबर बराबर ही छूट जाऊं, ना कुछ मुझे मिले और ना कुछ मुझ पर बोझ हो।