सोलहवां रोजा ….. और

इबादत इमारत की तरह है, ईमान बुनियाद की मानिन्द है। इस्लाम,दरअसल अल्लाह तआला पर ईमान लाना और पैगंबर के अहकामे शरीअत को दिल से तस्लीम (स्वीकार) करना दरअसल मगफिरत (मोक्ष) का सिलसिला मानता है।

रोजा भी इसी की एक कड़ी है। चूंकि रमजानुल-मुबारक के बयान की यह तहरीर सोलहवें रोजे तक अल्लाह तआला की मेहरबानी से पहुंच गई है। लिहाजा रोजे की फजीलत के मद्देनजर यह नुमायां (जाहिर) हो जाता है कि रोजा अल्लाह तआला पर ईमान है और मगफिरत का रोशनदान है।

अल्लाह तआला पर ईमान रखना दरअसल अल्लाह तआला को याद करना और उनका का जिक्र करना है। मगफिरत नेक और रोजादार बंदे पर अल्लाह तआला की नवाजिश (कृपा) होगी। इसको यों समझ सकते हैं कि जब हमें किसी चीज की जरूरत होती है तो हम उसे खोजते हैं या तलाश करते हैं, जहां वो चीज रखी है वहां ढूंढते हैं या फिर उसको पुकारते हैं जिसके पास वो चीज रखी हुई है।

मगफिरत ऐसी ही चीज है जो अल्लाह तआला के पास है। ईमान (अल्लाह तआला पर) लाकर हमें अल्लाह तआला को पुकारना (याद करना) होगा। रोजा ईमान की मजबूती है। सही तरीके से रखा गया रोजा, रोजेदार के लिए अल्लाह की तरफ से मगफिरत की मंजूरी भी है।

कुरआने-पाक के अट्ठाइसवें पारे की सूरह तगावुन की पंद्रहवीं आयत में जिक्र है-‘तुम्हारे अमवाल (क्रियाएं) और औलाद बस तुम्हारे लिए एक आजमाइश की चीज हैं और जो शख़्स इनमें पड़कर अल्लाह तआला को याद रखेगा तो अल्लाह तआला के पास उसके लिए बड़ा अज्र (पुण्य) है।’ यह अज्र दरअसल मगफिरत का इशारा है और रोजा इसका जुज (घटक) है।