हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के समय में बनी हिन्दुस्तान की पहली मस्जिद चेरमान पेरुमाल

हैदराबाद : हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के समय में बनी हिन्दुस्तान की पहली मस्जिद ” चेरमान मस्जिद” जो  कोडुनगल्लूर केरल में है।  असल में भारत में मुसलमानों का आगमन अरब से व्यापार करने भारत आने वालों की वजह से हुआ। हजरत मुहम्मद (स.अ.व) के समय में भी भारत के समुद्री इलाकों में अरब व्यापार के सिलसिले में आयाजाया करते थे। उस समय सबसे अधिक व्यापार भारत से मसालों का हुआ करता था।

हर साल इस मस्जिद में  बच्चों के लिए मकतब का आयोजन किया जाता था। माना जाता है की भारत और अरब में व्यापार का रिश्ता इस्लाम आने के पहले से था और कोडुनगल्लूर के इलाके में समुद्री रास्ते से व्यापार के लिए आने वाले अरबी लोग रहते थे और उन्होंने वहाँ के राजा से नमाज के लिए जगह मांगी तो राजा ने यह स्थल दे दिया जहां अरब के लोग धार्मिक क्रियाकलाप किया करते थे और इस्लाम आने के बाद इस स्थान को मस्जिद का नाम दे दिया। इस मस्जिद के गेट पे ही लिखा है “चेरमान पेरुमाल मोस्क – सन 629 में निर्मित” जिस से यह पता चलता है की यह मस्जिद हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की वफात के तीन साल पहले बनी थी और इसके अनुसार यह भारत में बनी पहली मस्जिद कहलाई ।

मशहूर ये भी है की की वहाँ का राजा जिसे चेरमान पेरुमाल कहा जाता था एक चांदनी रात को अपने महल के छत पर टहल रहा था तो उसे आसमान पर चन्द्रमा दो टुकड़ों में दिखाई दिया अब राजा को चाँद के दो टुकड़ों में दिखने का कारण समझ में नहीं आया. राज दरबार में भी कोई समाधान पूर्वक उत्तर नहीं दे सका. एक अरब व्यापारियों का प्रतिनिधि मंडल राजा से मिलने आया था और राजा ने दो टुकड़ों में चाँद के देखे जाने के बारे में अपनी बात रखी. उन अरबों ने बताया कि यह पैगम्बर मुहम्मद का कमाल था. राजा ने मन ही मन पैगम्बर से मिलने की ठानी. अपने राज्य को अपने ही सामंतों में विभाजित कर दिया और मक्का के लिए रवाना हो गया. वहां जाकर पैगम्बर मुहम्मद से मुलाकात की और इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया. अब वो ताजुद्दीन  कहलाये परन्तु उन्होंने अपने आप को अब्दुल्ला सामूदिरी कहलाना पसंद किया था। घर वापसी के दौरान राजा  गंभीर रूप से बीमार पड़ गए तो उन्होंने पैगम्बर मुहम्मद के एक अनुयायी मलिक बिन दीनार को एक ख़त देकर कोडुनगल्लूर भिजवा दिया जिसकी वहाँ अच्छी आवभगत हुई और उसने ही वहां सन 629 में प्रथम मस्जिद की स्थापना की। वहां परिसर में ही जो दो पुरानी कब्रें हैं उन्हें हबीब बिन दीनार और उसकी पत्नी ख़ुमरिया बी का माना जाता है।  इस बात का ज़िक्र 16 वीं सदी में शेख जैनुद्दीन द्वारा लिखे तुहाफत-उल-मुजाहिदीन में मिलता है।