शायरे मजदूर हबीब जालब को संसार से कूच किए 23 साल हो गए हैं लेकिन आज भी दुनिया भर में उनके चाहने वाले और अदबी क्षेत्र उन्हें बड़े एह्त्मामा से याद करते हैं।
हबीब जालब अपनी सार्वजनिक कविता के कारण प्रसिद्ध थे:
हबीब जालब 28 फरवरी 1928 को राष्ट्र भारत के जिला होशियारपुर में पैदा हुए। एक किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले इस शायर ने गरीबी की कोख से जन्म लेने के बावजूद अपनी आत्म सम्मान और स्वाभिमान को किसी हाकिम समय के हाथ बिकने नहीं दिया।यह हबीब जालिब ही की बोल्ड तबियत थी जिसने उनसे जनरल ज़ियाउल हक़ के दौर में ऐसे मिसरे कहलवाये।
ज़ुल्मत को ज़िया, सर सर को सबा, बन्दे को खुदा क्या लिखना
इस ज़ुल्मो सितम को लुत्फ़ व करम, इस दुख को दवा क्या लिखना
लोकतंत्र के लिए हबीब जालिब की कोशिशों और उनके व्यक्तित्व पर मशहूर शायर और मुक़र्रीर इफ़्तिख़ार आरिफ़ ने एक मिडिया से विशेष बातचीत करते हुए कहा कि हबीब जालिब शायद एकमात्र कवि हैं जिन्होंने बहुत बेबाकी और साहस मंदी से तानाशाही और सामंती प्रणाली के खिलाफ आवाज उठाई और इतिहास के सामने अहले कलम को शर्मिंदा होने से बचा लिया।
इफ़्तिख़ार आरिफ़ का कहना था, ” मैं समझता हूं कि आज भी जब हबीब जालिब का नाम आता है तो केवल अहले कलम ही नहीं बल्कि सभी पिछड़े वर्गों के लोगों सहित जो मानव विवेक को ज़िनदा रखने की कोशिश में संघर्ष करते रहते हैं वे आज भी उन्हें अपना नेता स्वीकार करते हैं। हबीब जालिब ने कलम की पवित्रता को बनाए रखा। ”
मिडिया के इस सवाल के जवाब में कि वे कविताएं जो हबीब जालिब ने तानाशाही शासन में लिखें, क्या उनका संदेश आज के तथाकथित लोकतांत्रिक सरकार पर भी लागू होता है या नहीं, इफ़्तिख़ार आरिफ़ का कहना था प्रसिद्ध कवि किशोर नाहीद भी हबीब जालिब के हवाले से मिडिया को उनकी कला और जीवन पर चर्चा की।
किशोर नाहीद ने उस दौर को याद करते हुए, जब हबीब जालिब फातिमा जिन्ना के सभाओं में कविताएं पढ़ा करते थे, आंखों देखा हाल बताते हुए कहा कि जालिब कविता पढ़ते तो हजारों की सभा में ऐसी खामोशी छा जाती, जिसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। और बस यही उनके अनन्त सार्वजनिक प्रतिष्ठा का प्रारंभ बिंदु था।
किशोर नाहीद ने हबीब जालिब की गरीबी और कसमपुर्सी की जीवन को याद करते हुए कहा कि उन्होंने कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया यहाँ तक कि उन्होंने बेनजीर भुट्टो के कार्यकाल में उनकी ओर से वित्त की पेशकश को भी ठुकरा दिया।
किशोर नाहीद ने हबीब जालिब की जेल से रिहाई की एक घटना याद करते हुए बताया कि जिस दिन जालिब को रिहा किया जाना था, किशोर उसके पति के हम राह उन्हें लेने पहुंचीं। काफी समय बीतने के बाद भी हबीब बाहर न आए तो पता करने पर पता चला कि जालिब मिस्र थे कि उनके साथ अन्य गिरफ्तार हुए लोगों को भी रिहा किया जाए वरना वह भी विरोध में रिहा नहीं होंगे। और अंततः जेल अधिकारियों को इन लोगों को भी रिहा करना पड़ा।
इफ्तिखार आरिफ की राय में ऐसा नहीं था कि हबीब जालिब ने महज विरोधित कविता की और वह रोमांस शैली शुद्ध कविता में सक्षम नहीं थे बल्कि उनकी शुरू की ग़ज़लों और गीतों का अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि वह अपने सीरियस यात्रा की शुरुआत में रोमांटिक बातें भी लिखते थे। लेकिन फिर बदलते घरेलू स्थिति को देखते हुए जालिब ने अपना सीरियस पैटर्न बदल डाला।
आज भी उत्पीड़न के सदनों में उनके इस शेर से मज़लूमों का हौसला बंधाए हुए हैं।
दीप जिसका महलात ही में जले
चंद लोगों की खुशियों को लेकर चले
वह जो साए में हर मसलिहत के पले
ऐसे दस्तूर को, सुबहे बेनूर को
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता