हम आईने हैं तिरी दीद को तरसते हैं

अगरचे पास तिरे इर्द गिर्द बस्ते हैं
हम आईने हैं तिरी दीद को तरसते हैं

हमारी फसलों को जिन की अशद ज़ुरूरत है
वह अब्र! दूर बहुत दूर जा बरसते हैं

जो कल तलक थे जफ़ाकारियों के रखवाले
वह नाग अब भी वफ़ादारियों को डसते हैं

हूआ हूं जिन के भी अंदोह-ओ-कर्ब से नालां
वही तो लोग मिरी बे बसी पे हंसते हैं

विसाल-ए-यार के जितने भी लोग हैं ख़ाहां
वह दाम-ए-हिज्र में आ बार बार फंसते हैं

बलाए जान सही आश़िकी का मसलक यां
निहां भी इस में मगर आगही के रस्ते हैं

अजब है दलदल-ए-हस्ती कि लोग सुबह-ओ-मसह
फ़रार होने की कोशिश में आन धंसते हैं

ज़ुरूरतों से मुझे बांध कर जहां वाले
मिरी ज़बान को पाबंदियों से कसते हैं

हैं यूँ तो कहने को हम लोग `अशरफ़ु’ ल मख़ल़ूक
हम अपने दौर की हर जिन्स से भी सस्ते हैं
…………………अशरफ गिल