हम नशरगाह हैदराबाद से बोल रहे हैं..

आदाब! 411 मीटर पर हम नशरगाह हैदराबाद से बोल रहे हैं..आप चौंक तो नहीं गए ? आप में से जिन लोगों ने पुलिस ऐक्शण से पहले और इस के फ़ौरी बाद के हैदराबाद को देखा है और दक्कन रेडियो की सर्विस सुनी है उनके कान इन अलफ़ाज़ से ज़रूर मानूस होंगे, क्योंकि 1935 से 1953 तक दक्कन रेडियो नशरियात की इब्तिदा इन ही अलफ़ाज़ से होती थी।

हैदराबाद जो कल था में हमारे आज के मेहमान हैं जनाब मंज़ूर अलामीन साहब और हमारा आज का मौज़ू है दक्कन रेडियो (935-1953 ) के शब व रोज़। इस से वाबस्ता हैदराबाद की यादें। मंज़ूरुल अमीन साहब का शुमार हैदराबाद की उन चंद ग़िनी चुनी शख़्सियतों में होता है, जिन्होंने अपने फने कमाल से अपनी दुनिया ख़ुद बनाई है। आपने अपने कैरियर की शुरूआत बहैसियत रेडियो टाक्स प्रोडयूसर के 1948 में दक्कन रेडियो हैदराबाद से की और 1971 तक इस से वाबस्ता रहे । 1972 में आप का इंतिख़ाब बीबीसी लंदन टी वी ट्रेनिंग के लिए होगया।

इसके लिए उन्हें अक़वाम-ए-मुत्तहिदा की जानिब से फैलोशिप भी मिली थी। इस के साथ ही आपने रेडियो की दुनिया को ख़ैर बाद कह दिया और टी वी की दुनिया से वाबस्ता होगए। लंदन से वापसी के बाद आप दिल्ली में डायरेक्टर आफ़ सैटेलाइट टेलीविज़न से मुंसलिक हो गए। नौ माह बाद आप का तक़र्रुर हिंदुस्तान के पहले Rural टी वी , दूरदर्शन लखनऊ के पहले डायरेक्टर के तौर पर हो गया। इस के बाद तरक़्क़ी करते हुए डिप्टी डायरेक्टर और फिर एडिशनल डायरेक्टर जनरल दूरदर्शन इंडिया की हैसियत से तवील मुद्दत तक अपनी ख़िदमात अंजाम दी हैं।

आप के ख़ानदानी पस-ए-मंज़र की बात की जाये तो आप के परदादा ख़ान फ़तह ख़ान गोलकुंडा फ़ौज में मुलाज़िम थे। निज़ाम हुकूमत ने उनकी बहादुरी और सलाहियत की क़दर करते हुए सूबा बरार में जागीर बख़्शी थी। आप की पैदाइश 1926 में बरार के शहर अमरावती में हुई। चूँकि बरार कभी सलतनते आसफ़िया का हिस्सा था और आप की शादी भी शहर हैदराबाद में मशहूर अदीबा रफ़ीया मंज़ूरुल अमीन से हुई। इस निसबत से आप ख़ुद को हैदराबादी मानते हैं। ग्रैजूएशन की डिग्री आप ने अमरावती किंग ऐडवर्ड कॉलेज से हासिल की। जबकि पोस्ट ग्रैजूएशन आप ने नागपूर कॉलेज से समाजियात और उर्दू में मुकम्मल की। इमतियाज़ी नंबर हासिल करते हुए गोल्ड मिडल के हक़दार क़रार पाए।

कॉलिज के कानोकेशन में आप ने ये गोल्ड मिडल हिंदुस्तान के पहले वज़ीर-ए-दाख़िला सरदार वल्लभ भाई पटेल के हाथों हासिल किया। आप दक्कन रेडियो के साथ अपनी वाबस्तगी का तज़किरा करते हुए कहते हैं कि 1948 में आप का तक़र्रुर बहैसियत टाक्स प्रोडयूसर 25 रुपये सिक्का हाली माहाना के एवाज़ हुआ। सिक्का हाली का ज़िक्र करते हुए वो कहते हैं कि हिंदुस्तान के साथ हैदराबाद के एलहाक़ के बाद भी सिक्का दौलते उस्मानिया जारी था। ये करंसी सिक्का हाली कहलाती थी और उसकी क़ीमत हिंदुस्तानी रुपये के मुक़ाबले थोड़ी कम थी। ज़रे मुबादला में एक सौ हिंदुस्तानी करंसी के एवज़ 116 रुपये सिक्का हाली मिलते थे। सिक्का हाली 1953 तक जारी रहा। इस के बाद हकूमत-ए-हिन्द ने demonetization के तहत सिक्का हाली को अपनी तहवील में ले लिया और सिर्फ़ हिंदुस्तानी रुपये में में ही ख़रीद-ओ-फ़रोख़त को लाज़िम क़रार दिया। इस मुख़्तसर तआरुफ़ के बाद अब हैदराबाद जो कल था में दक्कन रेडियो की कहानी उन्ही की ज़बानी सुनिए!

दक्कन रेडियो हैदराबाद की शुरूआत बहुत ही दिलचस्प है। उस की शुरूआत कुछ इस तरह हुई कि बीसवीं सदी की चालीस की इब्तिदाई दहाई में चिराग़ अली लेन (आबडस ,हैदराबाद) के एक इंजनीयर महबूब अली ने तजुर्बा करते हुए 00 वाट्स ट्रांसमीटर वाला एक प्राईवेट ब्रॉडकास्टिंग स्टेशन क़ायम किया और दक्कन रेडियो के नाम से ख़ानगी सर्विस शुरू की। ये प्राईवेट ब्रॉडकास्टिंग रेडियो स्टेशन सिर्फ़ उर्दू ज़बान में प्रोग्राम नशर करता था। महबूब अली की इस कोशिश-ओ-काविश में उन के भांजे मुज़फ़्फ़र अली मुआविन थे । मुज़फ़्फ़र अली दराज़क़द और ख़ूबरू शख़्सियत के हामिल थे। लोग उन्हें हैंडसम टाल मैन कहा करते थे। दक्कन रेडियो के साथ वाबस्तगी के ज़माने में हमने मुज़फ़्फ़र अली साहब से बहुत कुछ सीखा है। बहरहाल इस क़िस्से को यहीं छोड़ते हुए ये अर्ज़ करना है कि हुकूमत आसफ़िया ने रेडियो की मक़बूलियत और उस की एहमीयत के पेशे नज़र फ़रवरी 1935 को दक्कन रेडियो को अपनी तहवील में ले लिया। इस के बाद 500 वाट्स के भारी ट्रांसमीटर और 750 केलो हारट्ज़ पावर के साथ यावर मंज़िल ख़ैरीयतआबाद में एक नए रेडियो स्टेशन का आग़ाज़ हुआ। पुलिस ऐक्शण के बाद भी दक्कन रेडियो अपने नाम और उर्दू शनाख़्त के साथ 1953 तक अपनी नशरियात पेश करता रहा। उस ज़माने में उर्दू नशरियात की कसरत भी जारी रही क्योंकि उस वक़्त हिंदू मुस्लमान दोनों ही सामईन उर्दू प्रोग्राम सुनना ज़्यादा पसंद करते थे।

1953 में हकूमत-ए-हिन्द ने फ़ैसलाकुन इक़दाम उठाते हुए दक्कन रेडियो को ऑल इंडिया रेडियो में ज़म कर दिया। दक्कन रेडियो को नशर गाह हैदराबाद से भी जाना जाता था क्योंकि दक्कन रेडियो की नशरियात की इबतिदा में कहा जाता था :हम नशरगाह हैदराबाद से बोल रहे हैं। इसी तरह ख़बरों के नशरियात के दरमियान कहा जाता था, ये ख़बरें आप नशरगाह हैदराबाद से सुन रहे हैं। उस ज़माने में दक्कन रेडियो नशरियात की तीन मजालिस सुबह, दोपहर और शाम के औक़ात होती थीं । सुबह की मजलिस सुबह साढे़ छः बजे से शुरू होती थी। दोपहर की मजलिस साढे़ बारह बजे शुरू होती थी, जबकि शाम की मजलिस पाँच बजे शुरू होती थी और रात साढे़ दस बजे तक जारी रहती थी। रात में साढे़ दस बजे या इस से कुछ पहले ये ऐलान किया जाता आज की नशरियात यहीं ख़त्म होती हैं। इसके बाद दो मिनट दौरानिया वाला सलतनत उस्मानिया का तराना : ता अबद ख़ालिक़ आलम ये रियासत रखे। तुझको उसमान बसद अजलाल सलामत रखे बतौर signaturetune के नशर होता था। मीर उसमान अली ख़ान अपनी हिंदू और मुस्लिम रियाया को अपनी दो आँखें मानते थे। इस मुहब्बत का असर नशरगाह हैदराबाद के नशरिया से भी झलकता था। जिस तरह से हर जुमा को नशरगाह हैदराबाद से बेहतरीन क़ारी तिलावत कलाम पाक पेश करते थे। इसी तरह हर मंगल को श्रीमद् भगवत गीता का पाठ भी नशर किया जाता था। जिसे रामनिवास शर्मा पेश करते थे।

उस ज़माने में हैदराबाद में क़ारी अब्दुल बारी की तिलावत की बहुत धूम थी। सामईन में उन के ताल्लुक़ से ये जुमला मशहूर था कि कारीयों में क़ारी, क़ारी अब्दुल बारी। इस लिए नशरगाह हैदराबाद से अक्सर जुमा को उन को ही तिलावत कलाम पाक के लिए मदऊ किया जाता था। दक्कन रेडियो से उर्दू हिन्दी ज़ुबान के इलावा तेलुगु , मराठी और कन्नड़ ज़बान में भी नशरियात पेश की जाती थीं। तफ़रीही प्रोग्राम में हिंदुस्तानी क्लासीकल मूसीक़ी, क़व्वाली, ड्रामे, मुशायरे नशर होते थे। सामईन में वारसी बिरादर की कव्वालियां बहुत मक़बूल थीं। इतवार के रोज़ मग़रिबी मूसीक़ी भी नशर की जाती थी। जिसकी फ़र्माइश हैदराबाद में मुक़ीम ऐंगलो इंडियन तब्क़े के अफ़राद करते थे । ऐसे ही देहाती भाईयों के लिए लोकगीत, लोक संगीत प्रोग्राम नशर होते थे। जबकि ख़वातीन के लिए घरेलू दस्तकारी और पकवान के प्रोग्राम नशर होते थे।

आप को ये जान कर ताज्जुब होगा कि महीने दो महीने में ओपन एयर प्रोग्राम भी नशर किए जाते थे। इस तरह के प्रोग्राम्स खुले मैदान में दक्कन रेडियो की जानिब से मुनाक़िद किए जाते थे। ये प्रोग्राम मुशायरा, क़व्वाली या ग़ज़ल ख़वानी के होते थे। जिनमें माहिरीने फ़न को मदऊ किया जाता था। सामईन की भी एक बड़ी तादाद लुत्फ़ अंदोज़ होने के लिए मदऊ होती थी। वहीं दक्कन रेडियो की पूरी टीम इसके कामयाब नशरिया के लिए दिल-ओ-जान से लगी होती थी। दिलचस्प बात ये है कि दक्कन रेडियो के इब्तिदाई ज़माने में तवाइफ़ों को भी नग़मासराई के लिए नशरगाह हैदराबाद में मदऊ किया जाता था। ये प्रोग्राम अंदर वन स्टूडीयो भी रिकार्ड किए जाते थे और ओपन आईरमीं भी। उस ज़माने में दिलकश आवाज़ वाली नूरजहां बेगम (हैदराबाद की एक हसीन तवाइफ़ ) की नग़मासराई के चर्चे सामईन की ज़बानों पर आम थे।