हरम शरीफ़ के कबूतरों का दाना बाइस शिफ़ा होना ग़ैर दरुस्त

मक्का मुकर्रमा 09 अक्टूबर: (एजैंसीज़) ऐसे आज़मीन-ए-हज्ज जिन्हें इस्लामी अक़ीदा का सही फ़हम नहीं है इन में ये रुजहान तेज़ी से बढ़ रहा है कि हरम शरीफ़ के कबूतरों का दाना उन्हें बीमारीयों से शिफ़ा देता है या फिर इस से बरकात-ओ-फ़्यूज़ हासिल होते हैं।

अरब न्यूज़ की एक ख़बर के मुताबिक़ कई आज़मीन ग़ार -ए- जहां पर पैग़ंबर इस्लाम हज़रत सल० अल० वस0 पर पहली वही नाज़िल हुई थी या अर्फ़ात में जबल रहमत पर इस अक़ीदा के साथ जाते हैं कि इन मुक़ामात की ज़यारत मनासिक उमरा का हिस्सा हैं या फिर इस से इर्फ़ान अलहाई हासिल होता है। बाअज़ आज़मीन अपने ख़ानदान के ख़ैर के लिए इन पहाड़ीयों के पत्थर भी अपने घर ले जाते हैं।

ऐसे आज़मीन-ए-हज्ज जो अपने या अपनों के ईलाज के ख़ाहां हैं वो मस्जिद उल-हराम के सहन में कबूतरों और दीगर परिन्दों के लिए डाले जाने वाले दानों या अजनास को चुन लेते हैं। कबूतरों की ग़िज़ा के तौर पर डालने के लिए अजनास की छोटी छोटी थैलियां एक रयाल में ग़ैर मुल्कीयों की जानिब से फ़रोख़त की जाती हैं ताकि उन्हें खरीदकर आज़मीन कबूतरों के लिए दाना डालें।

अजनास और गेहूं के दाने अलमफ़सलहा इलहा फ़र्र ग़ाज़ा और मस्जिद उल-हराम से क़रीब के अज़ला में दस्तयाब होते हैं।

एक 60 साला पाकिस्तानी आज़िम रईस ग़ुलाम से जब ये पूछा गया कि वो परिन्दों के दाने क्यों जमा कर रहे हैं तो उन्हों ने बताया कि इन की ज़ौजा जो उन से 6 साल की छोटी हैं बांझ हैं और निकाह के बरसों बाद भी औलाद नहीं हुई । उन्हों ने कहा हम ने हर तरह का ईलाज करवाया मगर बेफ़ैज़।

एक दोस्त ने मशवरा दिया कि हम उमरा अदा करें और मस्जिद उल-हराम के कबूतरों के दाने खाए।

रईस ग़ुलाम ने बताया कि मक्का आमद के फ़ौरी बाद वो अलमीसईआल इलाक़ा को गए जहां कबूतरों के लिए दाना फेंका गया था। एक हफ़्ता से हम हर रोज़ 7 दाने खा रहे हैं और हम नतीजा के हनूज़ मुंतज़िर हैं। एक मिस्री आज़िम असमाआईल ने कहा कि इन की अहलिया जो मिर्गी की मरीज़ा है शिफ़ा-ए-याब नहीं हो सकी और इस के दौरे बढ़ते जा रहे हैं। इस ने कहा कि एक दोस्त ने उन्हें मशवरा दिया कि उमरा के लिए मक्का मुकर्रमा जाएं और उन की ज़ौजा के ईलाज के लिए कबूतरों को डाला जाने वाला दाना खाए।

इस्माइल ने कहा दोस्त ने कहा कि मेरी बीवी को तीन दिनों तक मुसलसल तीनों पहर के खाने के साथ तीन- तीन दाने खाने खाई। दो हफ़्ते गुज़र गए मगर बीवी हनूज़ अच्छी नहीं हुई है। इस ने कहा कि दोस्त ने बताया था कि दाने टूटे हुए नहीं होने चाहीए और उन्हें एक ही लुक़मा मैं निगल लेना चाहिये। इस ने कहा हम ने दोस्त के मशवरा के मुताबिक़ अमल किया मगर कुछ भी फ़र्क़ नहीं हुआ। डायरैक्टर इस्लामिक एसटडीज़ सैंटर उम अलक़रा-ए-यूनीवर्सिटी मुहम्मद अलसहील ने इस मसला पर तबसरा करते हुए कहा कि सिर्फ कमज़ोर अक़ीदा और नाक़िस दीनी मालूमात के हामिल मुस्लमान ही ऐसा करेंगी। उन्हों ने आज़मीन को मशवरा दिया कि वो ऐसा ना करें चूँकि ये इस्लामी अक़ीदा के बिलकुल्लिया मुनाफ़ी है।

उन्हों ने एक हदीस ब्यान की कि मक्का मुकर्रमा में लावारिस पड़ी अशीया ( रक़म गज़ा-ए-और दीगर एशियाई-ए-) नहीं उठा लेनी और इस्तिमाल करनी चाही अलसहील ने आज़मीन से ख़ाहिश की कि वो मस्जिद उल-हराम में अपने क़ियाम के दौरान ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू के साथ अल्लाह तबारक ताला की इबादत में वक़्त गुज़ारें और इसी से शिफ़ा-ए-के तलबगार हूँ।