फुक़हा ने अहद की पाबंदी पर इस क़दर इसरार किया है और यहां तक कहा है कि अगर कोई ग़ैर मुल्की इजाज़त लेकर किसी मुक़र्ररा मुद्दत के लिए इस्लामी इलाक़े में आ चुका हो और इसी दौरान इस्लामी हुकूमत और इस ग़ैर मुल्की हुकूमत में जंग छिड़ जाये तो इस ग़ैर मुल्की की हिफ़ाज़त के तक़ाज़े मुतास्सिर नहीं होने चाहिऐं और इसके वीज़ा की मुद्दत ख़त्म होने तक इसके पुरअमन क़ियाम को यक़ीनी बनाना मेज़बान मुल्क की ज़िम्मेदारी है और उसे ना सिर्फ़ बहिफ़ाज़त वतन वापसी, बल्कि अपने साथ अपना सामान और मुनाफ़ा वग़ैरा सब कुछ ले जाने का भी हक़ हासिल है।
इसके इलावा दौरान क़ियाम उसे वही अदालती तहफ़्फ़ुज़ भी हासिल रहेगा, जो जंग छिड़ने से क़ब्ल हासिल था। ग़ैर मुल्की सफ़ीर को (चाहे वो कितना ही नाख़ुशगवार पैग़ाम लेकर क्यों ना आए) मुकम्मल तहफ़्फ़ुज़ हासिल होता है। उसे मेज़बान मुल्क में अपने अक़ीदा पर अमल की मुकम्मल आज़ादी और बहिफ़ाज़त क़ियाम और वापसी की ज़मानत हासिल होती है।
दायरा-ए-इख़तियार या हुकूमती हुदूद का मसला भी कुछ मुनफ़रद ख़ुसूसीयात का हामिल है। इस्लामी इलाक़े में आबाद ग़ैर मुल्की (ग़ैर मुस्लिम) मुस्लिम हुकूमत के दाइरा-ए-इख़तियार में शुमार होंगे, लेकिन उन पर मुस्लिम क़वानीन का इतलाक़ नहीं होगा, क्योंकि इस्लाम अपनी हुकूमत में (इस्लाम से) मुख़्तलिफ़ क़वानीन की मौजूदगी कुबूल करता है, जिसमें हर मज़हब के लोगों के लिए अलग ख़ुदमुख़्तार अदलिया भी शामिल है।
इस तरह एक अजनबी (ग़ैर मुस्लिम) इस अदालत से अपना फ़ैसला कराने का हक़ रखता है, जो इसके कहने के मुताबिक़ इसके अक़ीदा से मुताल्लिक़ होगी। अगर वो मसीही, यहूदी या किसी दूसरे अक़ीदा का पैरोकार हो और दूसरे फ़रीक़ का ताल्लुक़ भी इसी अक़ीदा से हो, तो चाहे वो दूसरा मुस्लिम रियासत का शहरी हो या बाहर का हो, मुक़द्दमा का फ़ैसला इस अक़ीदा की अदालत में अपने क़वानीन के तहत करेगी। आम तौर पर इस हवाले से दीवानी और फ़ौजदारी मुक़द्दमात में कोई इमतियाज़ नहीं।
इस सूरत में कि मुक़द्दमा के फ़रीक़ मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब से ताल्लुक़ रखते हूँ तो ये मसला ऊपर ज़ेर-ए-बहस आ चुका है, ताहम इस्लामी क़वानीन के तहत ग़ैर मुस्लिमों को ये हक़ हासिल है कि वो अपने अक़ीदा के तहत क़ायम अदालत से फ़ैसला करने के इस्तिहक़ाक़ से दस्तबरदार होकर अपना मुक़द्दमा इस्लामी अदालत में ले जाएं, बशर्ते कि दूसरा फ़रीक़ भी रज़ामंद हो।
ऐसी सूरत में इस्लामी क़ानून का इतलाक़ होगा। मुस्लिम जज को ये इजाज़त है कि वो मुक़द्दमा के फ़रीक़ों के पर्सनलाई यानी उन के मज़हबी क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला कर सकता है, जैसा कि रसूल अल्लाहस०अ०व०के अमल से साबित है। बुख़ारी की रिवायत है कि बदकारी के मुर्तक़िब दो यहूदीयों को उन के हममज़हब फ़ैसला के लिए रसूल अल्लाह स०अ०व० की ख़िदमत में ले आए और आप ( स०अ०व०) ने उन की मज़हबी किताब तौरेत के मुताबिक़ यहूदी क़ानून के तहत इनका फ़ैसला फ़रमाया।
ये अमर काबिल ए ज़िक्र् है कि फ़क़हाए इस्लाम ने क़ानून के तक़ाज़े को इस क़दर अहमीयत दी है कि उन्होंने ये क़रार दिया है कि अगर किसी मुस्लिम रियासत के मुसलमान शहरी के ख़िलाफ़ ग़ैर मुल्क में इस मुल्क के शहरी से कोई जुर्म सरज़द हो जाये और बाद में अगर वो ग़ैर मुल्की (ग़ैर मुस्लिम) मामूल के हालात में मुस्लिम रियासत में आ जाए तो भी इस पर इस्लामी अदालत में मुक़द्दमा नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि उसे अपनी हदूद से बाहर सरज़द होने वाले जुर्म के मुक़द्दमा की समाअत का इख़तियार नहीं है।
इस बारे में फ़ुक़हाए इस्लाम ने मुकम्मल इत्तिफ़ाक़ किया है। हज़रत इमाम अबू हनीफ़ा रह० के शागर मुहम्मद अलशीबानी ने इस क़ानून की ताईद में रसूल अल्लाह स०अ०व० की एक हदीस मुबारका भी बयान की है:
अतीया बिन क़ैस अलक़ल्बी रिवायत करते हैं कि रसूल अल्लाह स०अ०व० ने फ़रमाया अगर कोई शख़्स क़त्ल, ज़िना या चोरी का इर्तिकाब कर के दुश्मन मुल्क में पनाह हासिल कर लेता है और फिर परवान ए राहदारी हासिल करके वापस आ जाता है तो इस पर इस जुर्म का मुक़द्दमा चलेगा, जिससे बचने के लिए वो भागा था, लेकिन अगर इस ने इन तमाम जराइम का इर्तिकाब दुश्मन की सरज़मीन पर किया और फिर परवान ए राहदारी लेकर अपने वतन वापस आता है तो वो मुस्तौजिब सज़ा नहीं गिरदाना जाएगा। (सर ख़स्सी२१: शरह अलसेर अल-कबीर४:१०८)
इस्लामी क़वानीन के तहत सरबराह हुकूमत या रियासत को किसी किस्म का इस्तिस्ना हासिल नहीं और इस पर भी ममलकत के तमाम दूसरे शहरीयों की मानिंद क़ानून का इतलाक़ होगा। अगर मुस्लिम रियासत का सरबराह इस किस्म के इस्तिहक़ाक़ (नाइंसाफ़ी, तबक़ाती इमतियाज़ वग़ैरह) से फ़ैज़याब नहीं होगा तो ग़ैर मुल्की हुक्काम और सफ़ीर भी किसी किस्म के इस्तिस्ना की तवक़्क़ो नहीं रखेंगे।
मेहमान की हैसियत से उन के एहतेराम और वक़ार के तमाम तक़ाज़े मल्हूज़ रखे जाऐंगे, मगर इन्हें क़ानून और इंसाफ़ से बालातर क़रार नहीं दिया जा सकता।
मिसाली अदवार के कई वाक़ियात इस्लामी इंसाफ़ की मुनफ़रद तस्वीर पेश करते हैं। मुआहिदों पर अमल दरआमद को यक़ीनी बनाने के लिए एक दूसरे के अफ़राद को बतौर यरग़माल रखना रिवायात का हिस्सा रहा है, जिस में ये वाज़िह शर्त होती थी कि अगर एक फ़रीक़ ने दूसरे के अपने ज़ेर-ए-क़ब्ज़ा अफ़राद में से किसी को क़त्ल कर दिया तो दूसरे फ़रीक़ को अपने ज़ेर तहवील यरग़मालियों से इंतेक़ाम लेने का हक़ होगा।
ऐसे सूरत-ए-हाल हज़रत अमीर मआवीया और अलमंसूर के दौर में पेश आई और फुक़हा ने मुत्तफ़िक़ा तौर पर ये हुक्म जारी किया कि दुश्मन के यरग़मालियों को क़त्ल नहीं किया जा सकता, क्योंकि धोका दही और ग़द्दारी का इर्तिकाब उन के हाकिमों ने किया था, ना कि इन यरग़मालियों ने। क़ुरान-ए-पाक ने भी किसी के जुर्म की सज़ा दूसरे को देने की मुमानअत की है।
इस्लाम के जंगी क़वानीन भी इंसान दोस्ती पर मबनी हैं, इस में बच्चों, औरतों, बूढ़े, बीमार और मज़हबी पेशवाओं के क़त्ल की इजाज़त नहीं। क़ुरआन मजीद ने अमन को ज़रूरी क़रार दिया है, इस हवाले से हुक्म दिया कि तुम अज़खु़द कमज़ोरी दिखाकर सुलह की कोशिश ना करो, ताहम अगर दुश्मन सुलह पर आमादा हो तो तुम नरमी का मुज़ाहिरा करो। इस तर्ज़ अमल का मुज़ाहिरा रसूल अल्लाह स०अ०व०ने फ़तह मक्का के मौके पर किया, जब आप ( स०अ०व०) ने ऐलान आम फ़रमा दिया कि जाओ तुम आज़ाद हो।
क़ुरआन मजीद अहद की पासदारी को इतनी अहमीयत देता है कि इस के बदले में मुसलमानों के माद्दी मुफ़ादात भी क़ुर्बान करने के लिए तैयार है और इसका सबक़ ये है कि अगर मज़हब की बुनियाद पर ज़ुल्म भी हो रहा हो तो भी अपने अहद को निभाओ।
ख़ुलासा ये है कि इस्लाम एक आलमगीर उम्मा के क़ियाम का ख़ाहां है, जिस में तमाम लोगों में नस्ल, तबक़ा या मुल्क के इमतियाज़ से बाला मुकम्मल मुसावात हो और इसका सबक़ है कि लोगों को दिल से क़ाइल करके इस्लाम की तरफ़ माइल करो, सख़्ती और जबर के साथ नहीं। हर फ़र्द अपने तौर पर अल्लाह के सामने जवाबदेह है। इस्लाम के नज़दीक हुकूमत एक अमानत है, जो अवाम की ख़िदमत का ज़रीया है और सरकारी हुक्काम अवाम के ख़ादिम हैं। इस्लाम का हुक्म है कि हर फ़र्द नेकी को आम करने और बदी को रोकने के लिए तमाम तर कोशिशें करे।