हलाल-ओ-हराम में फ़र्क़ करो

ए इनसानो! खाव‌ इस से जो ज़मीन में है हलाल (और) पाकीज़ा (चीज़ें) और शैतान के क़दमों पर क़दम ना रखू, बेशक वो तुम्हारा खुला दुश्मन है। (सुरतुल बक़रा ।१६८)

आज की तरक़्क़ी याफ़ता दुनिया में खाने और इस्तेमाल की चीज़ों में सफ़ाई का एहतेमाम किया जाने लगा है, लेकिन हलाल-ओ-हराम की तमीज़ अब भी नहीं।

इस्लाम ने अपने मानने वालों को दोनों बातों के एहतेमाम का हुक्म दिया, यानी ज़ाहिरी तौर पर भी ग़लीज़ और गंदी ना हूँ, ताकि जिस्मानी सेहत पर बुरा असर ना पड़े और बातिनी तौर पर भी नजिस और पलीद ना हूँ, ताकि ज़मीर इंसानी दम ना तोड़ दे।

ज़ाहिरी सफ़ाई को क़ुरआन ने तेयब के लफ़्ज़ से और हक़ीक़ी पाकीज़गी को हलाल के लफ़्ज़ से ताबीर फ़रमाया है। हलाल उस चीज़ को कहते हैं कि ना तो ज़ाती तौर पर हराम हो, जैसे हराम जानवर, मुर्दार, शराब वग़ैरा और ना एसे तरीक़ों से हासिल की गई हो, जिन को शरीयत ने हराम क़रार दिया है, मसलन चोरी, जोह ख़ाह वो क्लबों में हो। रिश्वत और सूद वग़ैरा वग़ैरा।

इस्लामी निज़ाम मआशियात का ये एक बुनियादी उसूल है कि कसब मआश के लिए खुली छूट नहीं है, बल्कि वो तमाम रास्ते बंद करदिए हैं, जिन में किसी की कमज़ोरी, मजबूरी और नादारी से नाजायज़ फ़ायदा उठाया जाता हो। आप ख़ुद सोचें कि जब सूद, जोह, रिश्वत और ब्लैक मार्किटिंग वग़ैरा के चोर दरवाज़े बंद हो जाएं तो क्या दौलत सिकुड़कर सिर्फ़ चंद अफ़राद के हाथ में जमा होसकेगी!। दौलत की नाजायज़ तक़सीम बल्कि लूट खसूट जिन मआशी, अख़लाक़ी और सियासी ख़राबियों को जन्म देती है, वो एले इल्म से पोशीदा नहीं है। काश हम इस इलहि निज़ाम को ख़ुद समझते, इस पर संजीदगी से अमल करके दिखाते और दुसरे क़ौमों को समझा सकते।