हिन्दू किताबों में मंदिर के दावा की कोई बुनियाद नहीं

लोगों को हैरानी होगी, जब उन्हें पता चलेगा कि वी एच पी अपने दावा के हक़ में संस्कृत लेटरेचर से कोई दलील पेश नहीं कर सकी। अगर हीन्दूओं में अयोध्या के तक़द्दुस और राम मंदिर के वजूद से मुताल्लिक़ कोई मुस्तहकम रिवायत रही होती तो लाज़िमी बात थी कि विष्णु फ़िर्क़ा के लेटरेचर में अयोध्या की ज़यारत के लिए बहुत से ताकीदी नुसुस पाए जाते। एसे किसी भी हवाला का ना होना राम जन्म स्थान के तसव्वुर की क़दामत को बिलकुल मशकूक बना देता है। यही नहीं, बल्कि ये बात भी मशकूक है कि ये तसव्वुर अठारहवीं सदी से राइज रहा, जैसा कि हम अगली सुतूर में देखेंगे।

मज़कूरा दोनों दावों की ताईद में वी एच पी के माहिरीन ले दे कर असकनद प्राण का संस्कृत नस ही पेश करसके। इन का कहना है कि असकनद प्राण में अयोध्या की ज़यारत के फ़ज़ाइल बताए गए हैं, जिसे अयोध्या महातमया कहा जाता है। हम ने असकनद प्राण का मतबूआ नुस्ख़ा देखा (काश्मीर यन एडीशन मुंबई १९१०य-ए-) और वो दोनों नुस्खे़ भी देखे, जो वृन्दा बिन रिसर्च इंस्टीट्यूट में हैं और बोडलियन लाइब्रेरी ऑक्सफ़ोर्ड में भी पाए जाते हैं। ये सब नुस्खे़ हाल के हैं और एसा लगता है कि असकनद प्राण के अयोधया महातमया बाब में कम अज़ कम अठारहवीं सदी तक तहरीफ़ की जाती रही है और चीज़ों का इज़ाफ़ा किया जाता रहा है।

असकनद प्राण के दाख़िली मज़ामीन बशूमुल विद्या पति के तज़किरा के, जो सोलहवीं सदी के निस्फ़ अव्वल में गुज़रा है, ये ज़ाहिर करते हैं कि ख़ुद इस प्राण का मर्कज़ी हिस्सा तक भी सोलहवीं सदी से पहले मुदव्वीन नहीं होसका था। इसी तरह अयोध्या महातमया जो मतबूआ नुस्ख़ा में है, वो भी सिर्फ एक आदमी के ज़रीया मुदव्वीन नहीं हुआ। मिसाल के तौर पर आम मुक़द्दस मुक़ामात के ब्यान में अचानक रुख मोड़कर अयोध्या की तक़दीस‍ओ‍तम्जीद शुरू करदी जाती है। इसी तरह ख़ुद अयोध्या के फ़ज़ाइल और सरजू नदी में नहाने के फ़ज़ाइल भी एक ही जगह पर नहीं दिए गए, बल्कि दो जगहों पर वहां दिए गए हैं, जहां सयाक़-ओ-सबॉक् का कोई ताल्लुक़ सरजू से नहीं है। ये भी देखने में आया कि मुक़द्दस मुक़ामात के तज़किरा में रावी की हैसियत से अगस्त्य की जगह अचानक वशसठ लेता है और इस के बाद फिर अगस्त्य की रिवायत शुरू हो जाती है। इस से पता चलता है कि रद्दोबदल लाज़िमन किया गया है।

जन्म स्थान का ब्यान अयोध्या महात्माया के आख़िरी बाब (अश्लोक १८ता२५) में पड़ता है, जो वाज़िह तौर पर बाद का इज़ाफ़ा है और नुसुस के आख़िर में इज़ाफ़ा करना आसान भी हुआ करता है। ताहम इन मुख़्तलिफ़ मुश्किलात के बावजूद अगर हम अयोध्या महात्माया में राम जन्म भूमि के मुक़ाम को तस्लीम कर भी लें तो फिर भी ये बाबरी मस्जिद के महल वुक़ू से बिलकुल अलग होगा। राम की जाय पैदाइश के लिए दो लफ़्ज़ों जन्म स्थान और जन्मभूमि का इस्तिमाल किया गया है।

अगर दोनों नामों को शनाख़्त के बतौर ले लें, तब भी राम जन्मभूमि की अयोध्या महात्माया में दी गई मालूमात बाबरी मस्जिद की जगह की निशानदेही नहीं करतीं। बृंदा बन और बोडलियन महात्माया के दोनों नुस्खे़ इस मुक़ाम के अहाता का रुख और दूरी कई ब्यानात से वाज़िह करते हैं। अश्लोक नंबर २४।२१ के मुताबिक़ जाय पैदाइश मग़रिबी सिम्त में लोमाश में पाँच सौ धनुष (९१० मीटर) और मशरिक़ की जानिब विघ्नेश्वर से १००९ धनुष (१८३५ मीटर) की दूरी पर वाक़्य है। मुक़ामी हिन्दू रवायात के मुताबिक़ लोमाश या लोमश का मुक़ाम मौजूदा दौर में रैना मोचना घाट कहलाता है। इसी लिहाज़ से राम जन्मभूमि को मग़रिबी सिम्त में कहीं होना चाहीए। सरजू नदी के पायँती के पास ब्रह्मकुंड के मुज़ाफ़ात हैं। मज़ीद महात्मा या के मुताबिक़ रैना मोचना घाट या लोमाश का मुक़ाम सात सौ धनुष (१२७४ मीटर) ब्रह्मकुंड से शुमार में है। ये सिम्त और दूरी दोनों तक़रीबन हमारे नज़दीक दरुस्त पाए गए हैं। इस से मज़ीद ये भी मालूम होता है कि जन्म स्थान विघ्नेश्वर के शुमाल में वाक़्य है और एक मुक़ामी रिवायत के मुताबिक़ विघ्नेश्वर का मुक़ाम एक सतून से जाना जाता है, जो रामचंद्रन घाट के जुनूब में वाक़्य है और इस से भी जन्मभूमि बाबरी मस्जिद के मुक़ाम से ख़ारिज हो जाती है और रामचंद्रन घाट और सरजू के किनारे ब्रह्मकुंड के बीच में कहीं इस का वाक़्य होना तै हो जाता है। इस तरह ये तै है कि हिन्दू रवायात के मुताबिक़ जैसा कि असकनद प्राण की महात्मा या से मालूम होता है, बाबरी मस्जिद जन्मभूमि की जगह पर नहीं है। विश्वा हिन्दू परिषद के माहिरीन ने ये दावा भी किया है कि राम जन्मभूमि का मौक़ा-ओ-महल शमसी समतों से मुतय्यन किया गया है, जो पीमाइशी चीज़ों से मुतय्यन नहीं किया जा सकता। बाहम अगर शमसी पैमाइश से भी काम लिया जाय, तब भी असकनद प्राण का जन्म स्थान बाबरी मस्जिद के मुक़ाम पर नहीं होसकता।

लगता ये है कि एवधया महात्मा या के मुख़्तलिफ़ नमूने अठारहवीं सदी के अवाख़िर और उन्नीसवीं सदी के अवाइल में तैय्यार किए गए, यानी उस वक़्त तक राम की जाय पैदाइश अहम नहीं समझी जाती थी। ये भी काबिल-ए-ग़ौर है कि महात्मा या मैं ज़यारत के जितने मुक़ामात बताए गए हैं, इन में राम जन्मभूमि का कोई तज़किरा नहीं है। महात्मा या के मुरत्तबीन के नज़दीक स्वर्ग द्वार की एहमीयत ज़्यादा मालूम होती है, जन्मभूमि की नहीं। स्वर्ग द्वार वो जगह है, जहां राम ने दुनिया को ख़ैरबाद कहा और उन के यहां पर इंतिक़ाल की वजह से मुक़द्दस माना जाता है। असकनद प्राण में एवधया स्वर्ग द्वार तीर्थोएं का तज़किरा करती है, लेकिन इस का वाक़ई मौक़ा-ओ-महल जो भी हो, ये वाज़िह है कि हिन्दू ज़हन के नज़दीक ये मुक़ाम दोसरीजगहों के मुक़ाबले में ज़्यादा काबिल-ए-एहतिराम-ओ-तक़दीस रहा है। इस तीर्थ का अव्वलीन तज़किरा ग्यारहवीं सदी के घनडा वाला कतबात में मिलता है, जिस से मालूम होता है कि घाघरा नदी और सरजू नदी के संगम पर एक राजा ने ज़मीन का अतीया दिया था, लेकिन ये दान संगम पर विष्णु की पूजा से ताल्लुक़ रखता है, किसी मंदिर का कोई ब्यान नहीं करता। (डाक्टर सी सरका, कतबात जलद११, सफ़ा २७६, ७७) (तसलसुल आइन्दा जुमा)