हुक़ूक़ ए ज़ोजैन (मीयाँ बीवी)

दीन ए इस्लाम दुनिया का वाहिद मज़हब है, जिसमें ज़ोजैन ( मीयाँ बीवी) के हुक़ूक़ तफ़सील से बयान किए गए हैं, जब कि किसी और मज़हब में उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। अल्लाह तबारक‍ ओ ‍तआला ने निकाह के अहकामात क़ुरआन ए मजीद की मुतअद्दिद सूरतों में बता दिए हैं।

अल्लाह तआला का इरशाद है कि हम ने हर चीज़ को जोड़ों में पैदा किया है। कायनात की कोई शय ऐसी नहीं, जिसका जोड़ा ना हो। फिर इरशाद फ़रमाया कि तुम्हारे लिए भी जोड़े पैदा किए, ताकि तुम इनसे तसकीन हासिल करो।

इसके लिए अल्लाह तआला ने अपने रसूल स०अ०व० के ज़रीया जायज़ और शरई तरीक़ा भी बता दिया कि एक मर्द और औरत किस तरह निकाह के बंधन में बंध कर अल्लाह के बताए हुए तरीक़े पर ज़िंदगी की शुरूआत करें।

इसके लिए ये हुक्म है कि अल्लाह और इसके रसूल स०अ०व० की इताअत करो तो फ़लाह पाओगे।
यूं तो निकाह उर्फ़ आम में दीन इस्लाम में एक मुआहिदा है, जो एक आक़िल-ओ-बालिग़ मर्द और आक़िला-ओ-बालिग़ा औरत के दरमयान एक मख़सूस तयशुदा रक़म (महर) के इव्ज़ तय पाता है, जिसके लिए दो गवाहों का होना ज़रूरी है।

औरत या इसके वली-ओ-वकील का दूसरे फ़रीक़ (मर्द) को एक तयशुदा रक़म (महर)के इव्ज़ इसके निकाह में देना और इस मर्द का उस औरत को इस मिक़दार महर के इव्ज़ कुबूल करना।

ये है दीन ए इस्लाम में शादी और निकाह का इंतिहाई सादा तरीक़ा। सब से अहम बात ये कि निकाह हमारे प्यारे रसूल स०अ०व० की सुन्नत है।

आज हम शादी की तक़रीबात और महफ़िलों में जो कुछ भी देखते हैं, इन बेहूदा रसूम और ख़ुराफ़ात का दीन ए इस्लाम या शरीयत मुतहर्रा से दौर का भी वास्ता नहीं है। जब हमारी अज़दवाजी ज़िंदगी की शुरूआत ही इस तरह की ग़ैर इस्लामी रसूमात और रिवाजों से होगी तो इसके बाद वाली ज़िंदगी में आख़िर किस तरह एक दूसरे के लिए मुहब्बत पैदा होगी और एक दूसरे के हुक़ूक़ का लिहाज़ क्यों कैसे करेंगे?।

शादी के बाद बहुत ही कम वक़फ़ा में शौहर और बीवी के दरमयान मामूली और छोटी छोटी बातों पर बहस-ओ-तकरार शुरू हो जाती है। इसके बाद शौहर नामदार का ये हुक्म जारी होता है कि वो घर और बीवी के मालिक हैं, लिहाज़ा बीवी को इनका हर हुक्म मानना पड़ेगा।

अक्सर ऐसा भी होता है कि शौहर अपनी बीवी और इसके वालदैन को परेशान करना अपना हक़ समझता है और फिर जायज़-ओ-नाजायज़ मुतालिबात पूरा करने की उम्मीद भी रखता है। औरतें इस तरह का ज़ुल्म-ओ-सितम बिलकुल नहीं बर्दाश्त कर पातीं, बल्कि बाअज़ औक़ात अपने घर को ख़ुद ही तबाह कर लेती हैं।

इस तबाही के लिए मुल्की क़ानून ने ख़वातीन के हाथ में एक मज़बूत हथियार डोरी केस दे दिया है, वो जब चाहें और जिस तरह चाहें अपने शौहर और इसके घर वालों को पुलिस और अदालत में खींच कर ना सिर्फ़ अपना ख़ानदान, बल्कि शौहर के ख़ानदान को भी तबाही-ओ-बर्बादी के रास्ता पर डाल सकती हैं।

इसके बाद दोनों घरानों के दरमयान ये तकरार शुरू होती है, यानी लड़का कहेगा कि में तुम्हें तलाक़ नहीं दूंगा और लड़की इसरार करेगी में तुम्हारे साथ नहीं रहूंगी। इन हालात में ना तो तलाक़ होती है और ना ही खुला। जिसकी वजह मोटी रक़म, ढेर सारा जहेज़ और महर की रक़म होती है।

शौहर ये सोचता है कि अगर तलाक़ दूंगा तो ये सब कुछ वापस करना होगा और बीवी की सोच ये होती है कि अगर खुला लूंगी तो ये सब कुछ छोड़ना पड़ेगा। दोनों की सोच ना तो शरई उसूलों के मुताबिक़ है और ना ही मुल्की क़ानून के मुताबिक़। आपस में बहस-ओ-तकरार जारी रहेंगे और दोनों पुलिस-ओ-अदालत के चक्कर लगाकर अपनी ज़िंदगी के क़ीमती औक़ात का ज़ाया करते रहेंगे।

अर्ज़ ये है कि क़ौम-ओ-मिल्लत के बाअसर और बड़े लोग, इस्लाह मुआशरा का दर्द रखने वाले और ख़ास तौर पर हमारे उल्मा ए किराम अपनी क़ौम में ये एहसास पैदा करें कि अपने तमाम झगड़े और तनाज़आत को अपने बड़ों, दार अल क़ज़ा या शरई पंचायतों से रुजू करके निपटाने की कोशिश करें।

इन इदारों के ज़िम्मेदार क़ुरआन-ओ-हदीस की रोशनी में इन मसाइल को हल करने की भरपूर कोशिश करें, जिससे ये होगा कि हमारी क़ौम का एक बड़ा तबक़ा बिला वजह पुलिस और अदालतों की कशाकश और अख़राजात से बच जाएगा।

इसका एक बड़ा फ़ायदा ये भी होगा कि दीगर मज़ाहिब के मानने वालों और अब्ना-ए-वतन के सामने हमारी क़ौम रुसवाई और बदनामी से महफ़ूज़ रहेगी।

इसके इलावा हमारी ख़वातीन और बच्चीयों की दुनिया-ओ-आख़िरत बरबाद होने से बच जाएगी |