`हैदराबाद को लाइन माररउं’ – सुब्हानी की लकीरों में बसा हैदराबाद

`हैदराबाद को लाइन माररउं’ – सुब्हानी की लकीरों में बसा हैदराबाद
एफ. एम. सलीम
हम जो हैदराबादी हैं और जिन्होंने हैदराबाद में सिर्फ एक सय्याह की तरह घूम-घाम लिया है या फिर इस शहर के बारे में किताबों में पढ़ा या सिर्फ सुना है, अलग-अलग चश्मों से उसे देखा, समझा और महसूस किया है।

कार्टूनिस्ट सुब्हानी श़ेख का भी अपना हैदराबाद है। बीते तीन दहों में उन्होंने इस शहर की सांसों में बसी तहज़ीब के बिखरने, उजड़ने, संवरने और बदलने के एहसास को लकीरों में खींचा है।

किसी की नाक पर उंगली रखकर उसके किरदार में झांकना सब से मुश्किल काम होता है और यही काम कार्टूनिस्ट को करना है। ज़ाहिरी तौर पर कार्टून हंसाता है, लेकिन कुछ देर के लिए ही सही मन में उसके बारे में एक फिक्र भी उभरती है। सुबहानी की नयी किताब `आदाब हैदराबाद’ कार्टून, केरिकेचर और स्केच की ज़ुबान में हैदराबाद की कहानियां, लतीफे बयान करती है और गुज़रते वक्त को पल भर के लिए ही सही लकीरों में बांधने की कोशिश करती है। उनके कार्टून और केरिचरों मे वक़्त टहरता नहीं, बल्कि बहता चला जाता है, लेकिन उस बहाव में जब वह आसपास के किनारों से टकराता है तो अपनी निशानियाँ छोड़ जाता है।

सुब्हानी हैदारबाद और हैदराबादियों के लिए कोई नया नाम नहीं है, उसी तरह सुब्हानी के लिए भी हैदराबाद मैदाने अमल के तौर पर ही सही उनकी शख्सियत और फ़न का अटूट हिस्सा रहा है। इसीलिए उन्हेंने यह कहने की हिम्मत की, `हैदराबाद को लाइन माररउँ’ और उन्होंने सिर्फ अपने दौर के हैदराबाद को ही `लाइन’ नहीं मारी, बल्कि उसकी तारीख़ और का ख़ाका भी खींचा है।

1591 में हैदराबाद की बुनियाद रखने वाले मोहम्मद क़ुली और भागमति की बड़ी ख़ूबसूरत तसवीर उन्होंने कार्टून के हवाले की है। मीनार, मछली, घोड़ा, मुहब्बत जैसी बहुत सारी अलामतों के ज़रिए अफ़साने कहने की कामयाब कोशिश फ़नकार ने की है। सातों निज़ामों एवं सालारजंग अव्वल के कार्टून अपने आपमें मुख़तलिफ़ हैं। फिर उसके बाद सीधे हम परसों-परसों 400 बरसे पहले वाले शहर में दा]िख़ल हो जाते हैं।

चारमीनार के शहर की जो तस्वीर सुब्हानी ने खींची है, उसमें तआज्जुब इस बात का है कि इतने सारे किरदारों को एस साथ पेश करते हुए कहीं ऐसा भी नहीं हुआ है कि सारा `अल्लम ग़ल्लम’ हो जाए। बल्कि हर किरदार अपनी तहज़ीब के आईने के सामने खड़ा है। हव, नक्को के बीच की पनपती नयी पुरानी तहज़ीब की अलामतें बड़े से कैन्वेस पर बिखरी हुई हैं। वहाँ बैल, घोड़ागाडी, आटोरिक्शा, बस और रेल से लेकर हैलिकैप्टर तक हर सवारी अपने लिए जगह तलाश कर रही है। ठेला बंडियों पर `एक दम फ्रेश’ फल बेचते लोग, `फकीरी चलरी उस्ताद’ का रोना रोतो फुटपाथी, अपनी कैपिसिटी से ज़ायद बोझ ढ़ोने वाले ऑटोरिक्शा, डींगे हांकते, फेंकां मारते, एक पौना मलाई मार के दो चाय और चार एमप्टी में खुश, दम की बिरयानी और पाया में मस्त लोग, इसी बीच बकरे फांसने का चक्कर चलाते हुए अपना उल्लू सीधा करती पुलिस और उससे बचने की तरकीबें तलाशते लोग..ग़र्ज फलकनुमा से हुसैन सागर तक और सिकंदराबाद से हाईटेक सिटी तक फैले शहर की चलती-रुकती, उलझती- सुलझती, लड़ती-झगड़ती, बनती-बिगड़ती हैदराबादियत के कई सारे नज़ारे सुब्हानी ने खींचे हैं।

हैदाराबाद अपने लोगों और इमारतों से ही नहीं, बल्कि यहाँ की चट्टानों के लिए भी मशहूर रहा है, जिसे तोड़-तोड़ कर दौलतमंद बंजारों ने अपने महल खड़े किये हैं। उन चट्टानों की बचाने के लिए चट्टानों से मुहब्बत रखने वालों की एक तहरीक भी चली। का उस पर फिल्में भी बनी, लेकिन उन्हें बस्तियों में बदलतने से बचाने में अधिक कामयाबी नहीं मिल पायी।

शहर की एक और निशानी है, हुसैन सागर.., इस झील की वज्ह से हैदराबाद दूसरे शहरों से अलग अपनी शिनाख़्त रखता है, लेकिन इस पर भी आहिस्ता-आहिस्ता सिमेंट और कंकरीट की दुनिया फैलती जा रही है। इस पर सुब्हानी की ा़फिक्र जायज है। उनका एक कार्टून इस पर गहरे तंज करता है। बुद्ध के मुजस्समें के पास बहुत सारे बुद्धू अपना सामान फैलाए बैठे हैं और एक होशियार गाइड अपने पास खड़े सय्याह को बता रहा है कि यहाँ कभी लोग कश्तियों से आया करते थे।

खैर! सुब्हानी की इस फन्नी किताब के बहाने शहर को समझने का अपने ढ़ंग से लुत्फ उठाया जा सकता है।