हैदराबाद जो कल था…डा. रहीमुद्दीन कमाल

डा. रहीमुद्दीन कमाल हमाजिहत शख़्सियत के मालिक हैं। उनकी पैदाइश 1920 में हुई। उनका ताल्लुक़ हैदराबाद सिविल सर्विस के 1940 के बैच से है। डा. कमाल को तारीख़ , तहज़ीब , तहक़ीक़ , सहाफ़त और अदब से ख़ास लगाव है। वो अंग्रेज़ी , फ़ारसी , उर्दू , मराठी और कई ग़ैर मुल्की ज़बानें जानते हैं। उन्होंने लंदन से डाक्टरेट की डिग्री हासिल की और कई बैरूनी मुमालिक के दौरे किए। उम्र की इस मंज़िल में भी वो पूरी तरह चाक़-ओ-चौबंद रहते हैं। वो अंग्रेज़ी अख़बार Indian Horizon के एडिटर हैं जो बैयकवक़त हैदराबाद और दिल्ली से शाये होता है। वो मुसलसल काम करने के क़ाइल हैं। उन के चेहरे पर थकन की एक शिकन भी नज़र नहीं आती। उन्हें देख कर एक हौसला मिलता है। उनसे मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पर एक तवील इंटरव्यू लिया गया जिस के कुछ इक़तिबासात पेश हैं ।

मैं चंद बातें अपनी इब्तिदाई ज़िंदगी के बारे में बताउंगा। में एक ऐसे घराने से हूँ जिसका ताल्लुक़ क़दीम हैदराबादी तहज़ीब से है। मेरे वालिद का ताल्लुक़ शुमाली हिंद से और वालिदा का दक्कन से था। में दोनों तहज़ीबों से बख़ूबी वाक़िफ़ हूँ। मेरी पैदाइश ज़हीर आबाद की है। बहुत कमउमरी में वालिद का इंतिक़ाल हो गया। ज़्यादा तर तालीम घर पर हासिल की, फ़ारसी पढ़ी। फिर हम हैदराबाद आगए। हैदराबाद में ऐसी शख़्सियतों से तआरुफ़ हासिल हुआ जो मेरे वालिद के दोस्त थे। उनमें एक बुज़ुर्ग सज्जाद मिर्ज़ा साहिब भी थे। मुझे उन की सरपरस्ती हासिल रही। वो मेरी रहनुमाई करते रहे। मुईनुद्दौला से भी क़ुरबत हासिल रही। सज्जाद मिर्ज़ा साहिब का एक स्कूल था जहां बी एड के तलबा ट्रेनिंग के लिए आते थे।

मैं पहले वहां शरीक हुआ। इस के बाद उन्होंने दार-उल-उलूम में मेरा दाख़िला करवा दिया। वहां के प्रिंसिपल अबदुल सत्तार साहब मशहूर माहिर-ए-तालीम थे जिन पर उन्हें एतिमाद था। दार-उल-उलूम असल में यूनीवर्सिटी के दर्जे का इदारा था जो बाद में एक स्कूल बन कर रह गया। सज्जाद मिर्ज़ा साहब अपने एक दोस्त की वफ़ात के बाद अपना ग़म ग़लत करने रूस गए। वहां के बारे में उन्होंने जो तक़रीरें कीं उन से मुतास्सिर हो कर मैंने एक वॉलपेपर शुरू क्या। नाम जसारत रखा। एक एडीटोरियल लिख दिया जाता था और ख़ाने बना दिए जाते थे ताकि जो तलबा चाहें अपने मज़ामीन चस्पाँ करें कई महीनों तक ये सिलसिला चलता रहा। मैट्रिकूलेशन फ़र्स्ट क्लास में पास किया। अब ये कश्मकश रही कि उस्मानिया यूनीवर्सिटी में दाख़िला लिया जाये या निज़ाम कॉलिज में। मैंने असातिज़ा के बारे में मालूमात हासिल कीं। प्रो. जमीलुर्रहमन साहब उस्मानिया के मशहूर उस्ताद थे।

उनसे में बहुत मुतास्सिर हुआ जो बाद में मेरे ख़ुसर भी बने। मैंने उस्मानिया यूनीवर्सिटी में दाख़िला ले लिया। मेरी किताब यादों के चिराग़ में तमाम असातिज़ा का ज़िक्र है जिन से मैंने इस्तिफ़ादा किया। उर्दू उस वक़्त सारे हिंदुस्तान की ज़बान थी। अंग्रेज़ों को भी उर्दू सीखनी पड़ती थी। यहां एक ख़िताब-याफ़ता अमीर थे रिफ़अत यार जंग। उन्होंने सालार जंग के पास तजवीज़ पेश की थी कि यहां एक उर्दू यूनीवर्सिटी होना चाहिए। वैसे तो सालार जंग ने इस तजवीज़ की सताइश की ,लेकिन वो ईरानी नसल से थे। नहीं चाहते थे कि फ़ारसी जो यहां की सरकारी ज़बान है वो बदल दी जाये। कम-अज़-कम अपनी ज़िंदगी में नहीं चाहते थे। उन्होंने इस तजवीज़ को दबा दिया। ये महबूब अली पाशाह के ज़माने की बात है। जब ये बात शम्सुल उमरा को मालूम हुई तो उन्होंने अपने ख़र्च से बहुत बड़ा इदारा बनाया। ना सिर्फ़ अंग्रेज़ी बल्कि फ़्रेंच , जर्मन वग़ैरा की किताबें मंगवाईं ट्रांसलेशन ब्यूरो क़ायम किया। एक छापाख़ाना क़ायम किया।

गोया वो उस्मानिया यूनीवर्सिटी का इब्तिदाई सरमाया था। इस के बाद मौलवी अबदुलहक़ और सर अकबर हैदरी ने यूनीवर्सिटी के लिए काम किया। अबदुलहक़ औरंगाबाद में नाज़िम तालीमात थे। सर अकबर हैदरी एक बार दौरे पर गए तो उन्होंने एक टी पार्टी में उन्हें मदऊ क्या । वहां मौलवी अबदुलहक़ ने लाजवाब तक़रीर की । उन्हों ने कहा में अभी डा. इक़बाल से मिल कर आया हूँ। डा. इक़बाल दूसरी मंज़िल पर रहते हैं नीचे दर्ज़ी की दुकान है इस पर लिखा है Tailor makes a man और दूसरी तरफ़ उर्दू में आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना लिखा है। ये उर्दू और अंग्रेज़ी तहज़ीब का फ़र्क़ है। यूनीवर्सिटी का ज़रीया तालीम उर्दू हो तो मिज़ाज , फ़िक्र , आप की तर्बीयत , आप के अफ़्क़ार सभी बदल जाऐंगे। सर अकबर हैदरी क़ाइल होगए इस के बाद तहरीक शुरू हुई। दार-उल-उलूम से ये तजवीज़ रास्त होम सैक्रेटरी को भेजी गई क्यों कि जो नाज़िम तालीमात थे वो बोहरा थे और उर्दू के मुख़ालिफ़ थे । होम सैक्रेटरी ने तजवीज़ को मंज़ूरी दे दी । रेज़ीडेन्ट ने भी पूछा था इस का माक़ूल जवाब दिया गया।

Rest is the history दक्कन में उर्दू ज़बान के दो पहलू हैं। औरंगाबाद में शुमाल और जुनूब का मिलाप हुआ। हैदराबाद में फ़ारसी को उर्दू ने बेदख़ल कर दिया। यहां जो मुक़ामी ज़बानें थीं उनसे तसादुम नहीं हुआ। जब शुमाली हिंद गए उन से मुतास्सिर हो कर वहां के शायर जो फ़ारसी में शायरी करते थे उर्दू में करने लगे। फ़ारसी जैसी पुरानी, दिलकश, मुहज़्ज़ब और पुरमग़्ज़ ज़बान को बेदख़ल कर दिया। आसिफ़ जाहों ने यहां की तहज़ीब में मुग़ल तहज़ीब दाख़िल करदी। क़ुतुब शाही दौर में भी मुशतर्का तहज़ीब थी। मुक़ामी लोग मुहर्रम को पन्डुगा कहते थे। हालांकि वो हुज़्निया है। हैदराबादी तहज़ीब पर मौसम का बहुत असर है। यहां का खाना , यहां का लिबास , यहां की आसाइशें सारे मौसम के साथ साथ होते हैं। बिरयानी गर्मीयों में नहीं खाते थे। प्लाव खाते थे । दोनों का नहज अलग है। अब तो ख़ैर बदतहज़ीबी का दौर है। दूसरी बात ये कि हैदराबादी जीवो और जीने दो के क़ाइल थे।

हैदराबादी aggressive नहीं होता। एक नायाब बात आप को बताता हूँ वो ये कि जब हमारे हाँ बाग़ात होते थे तो हर आम आदमी मौसम बारिश में पिकनिक मनाता था , झूले पड़ते थे , तिलन होता था । बाग़ का मेवा बेगम साहबा के पास आकर रखा जाता था घर नहीं ले जाते थे ।वो कहती थीं देखो हिस्से बांट दो , नौकर का हिस्सा , धोबी का हिस्सा , हज्जाम का हिस्सा , अज़ीज़ों का हिस्सा ! ये तहज़ीब थी जब कभी अच्छा खाना पकता वो सिर्फ़ ख़ुद नहीं खाते थे सब को हिस्सा भेजते थे। लफ़्ज़ हिस्सा इस्तिमाल करते थे यानी share हिस्सा का मतलब They have a Right। ये नज़र नहीं थी , इनाम नहीं था , तोहफ़ा नहीं था बल्कि हिस्सा था। ये तहज़ीब थी जिस को लोग भूल गए । दक्कन के लोग खट्टा बहुत खाते हैं क्यों कि यहां का मौसम जल्दी जल्दी बदलता है। खिचड़ी के साथ खट्टा खाया जाता था। मक्का मस्जिद के पास शोहदे होते थे वो कहा करते थे खिचड़ी खट्टा मिल जाये। चाकने का रिवाज था।