हैदराबाद जो कल था- डॉ. राम प्रशाद

माहिर-ए-तिब्ब , अदब के प्रुस्तार और हैदराबाद की गंगा जमुनी तहज़ीब की मुजस्सम शख़्सियत का नाम डॉ. राम प्रशाद राय है। हालाँकि उनका क्लीनिक मिले पली में है, लेकिन उनके चाहने वाले हैदराबाद के इलावा शहर के अतराफ़ व अकनाफ़ दूर-दूर तक पाए जाते हैं। जिन लोगों ने ज़िंदा दिलाने हैदराबाद की अदबी महफ़िलें ख़ुसूसन महफ़िले लतीफ़ा में शिरकत की है , वो डाक्टर साहब को एक लतीफ़ा गो की हैसियत से भी जानते हैं । मूसीक़ी और उर्दू अदब के शौक़ को उन्होंने इस क़दर अपनाया है कि ख़ुद शामे ग़ज़ल के कन्वीनर बन गए हैं। हैदराबाद की क़दीम रिवायती तहज़ीब के बारे में ख़ूब वाक़िफ़ हैं और नई तहज़ीब के बदलते रंग रूप पर भी नज़र रखते हैं । हैदराबाद जो कल था में उन के साथ हुई गुफ़्तगु का ख़ुलासा पेश है।

सरकारी क़ंदील की रोशनी में पढ़ने वाले लड़के का डेवढ़ी में दाख़िला
हैदराबाद में शुमाली हिंद से आए लोगों की दो बिरादरियां थीं कायसथ और खत्री। खत्रियों में मशहूर आला हज़रत निज़ाम के सदरुल महाम सर किशन प्रशाद थे। कायसथों को डेवढ़ियां नवाज़ी गईं। इनमें राजा शिवराज बहादुर और राजा राम करण की काफ़ी शोहरत थी। मेरे वालिद राय जानकी प्रशाद फ़ैज़ाबाद में पैदा हुए। इलहाबाद में कुछ दिन रहे और इसके बाद अपने वालिद के साथ हैदराबाद चले आए। दादा को रेसीडन्सी (कोठी) में नौकरी मिल गई। उस वक़्त हैदराबाद में डेवढ़ियां, औसत घराने के मकान और छोटे घर हुआ करते थे । ईसा मियां बाज़ार के पास जहां नाना मियां बाग़ था, एक छोटा मकान मिल गया। ये वही दौर था जब मूसा नदी में तुग़यानी आई थी । वालिद साहब के बचपन का एक वाक़िया बताया जाता है कि जब तुग़यानी के दौरान लोग एक दूसरे को बचाने और क़ीमती सामान को बहने से रोकने की कोशिश कररहे थे , तो वालिद साहिब गहरे पानी में सिर्फ़ इस लिए पहुंच गए क्योंकि इन का छोटा टेबल पानी में बह रहा था। उन के पास वो एक ही टेबल था।

इस के कुछ दिन बाद का वाक़िया है कि एक रात वालिद सरकारी क़ंदील के नीचे पढ़ते हुए बैठे थे वहां से डॉ. हामिद अली साहब अपनी मोटर में गुज़र रहे थे । उन्होंने बच्चे को इस हालत में देखा और वजह पूछी , वालिद ने बताया कि घर में रोशनी का सही इंतिज़ाम नहीं है। हामिद साहब जिन्हें बाद में हामिद यार जंग का ख़िताब भी मिला उन्हें अपने साथ डेवढ़ी में ले गए और कहा कि उनके भतीजों के साथ डेवढ़ी में ही पढ़ा करो। वो बड़े दूर अंदेश थे। लावलद थे लेकिन अपने चारों भतीजों की परवरिश कररहे थे। ये सोच कर कि इस बच्चे के बहाने वो चारों भी पढ़ने में दिल लगाऐंगे। उन्होंने मेरे वालिद को डेवढ़ी का हिस्सा बनाया । फिर ये हुआ कि उन्होंने वालिद के पूरे अफ़राद ख़ानदान को अपनी डेवढ़ी में बुला लिया । इस तरह हमारा ख़ानदान एक छोटे से मकान से डेवढ़ी में दाख़िल होगया । हामिद यार जंग के चारों भतीजे बड़े ओहदों पर पहुंचे , मसऊद अली सेशन जज हुए, ताहिर अली फ़ौज से रिटायर हुए, अमजद अली लंदन गए और उन्होंने बी बी सी उर्दू सर्विस की इब्तिदा में अहम रोल अदा किया और अहमद अली डाक्टर हुए। दरअसल उस वक़्त की तालीम , इल्म हासिल करने के मक़सद से हुआ करती थी। आज की तालीम की सीधी नज़र कमाई पर है। इस लिए पढ़े लिखे लोग अच्छे ही होंगे, इस की उम्मीद नहीं रही।

किसी के आने जाने से नहीं बदलेगा लिबास !
वालिद साहब तालीम मुकम्मल होने के बाद उस्मानिया यूनीवर्सिटी के दारुत्तर्जुमा में मुलाज़िम हुए। दरअसल उस्मानिया यूनीवर्सिटी में उर्दू ज़रिये तालीम को सहल और आसान बनाने के लिए मुख़्तलिफ़ शोबों के लिए लुगात और इस्लाहात की किताबें लिखने का काम था । कई किताबों का उर्दू में तर्जुमा का काम होना था। लखनऊ , दिल्ली , इलहाबाद और मुख़्तलिफ़ शहरों से लोग बुलाए गए। उर्दू को असरे जदीद से जोड़ने का काम हुआ। मुर्ग़बानी और बाग़बानी जैसी इस्तिलाहात दारुत्तर्जुमा की ही देन हैं। अली यावर जंग उन दिनों उस्मानिया यूनीवर्सिटी के वाइस चांसलर थे। वो बड़े मर्दुमशनास थे। लोगों की क़ाबिलीयत को एक नज़र में पहचान लेते। वो महकमे ताअलुकात-ए-आमा की शुरूआत करने जा रहे थे। उन्होंने वालिद साहिब को इस नए शोबे में काम करने की दावत दी इन दिनों सहाफ़त को इतनी आज़ादी नहीं थी। इन्फ़ार्मेशन डिपार्टमेंट की क़ैंची ख़बरों पर भी चलती थी। अलफ़ाज़ पर एतराज़ हो तो तबदील किया जाता । अब तो किसी शख़्स के लिए झूटा है, चोर है, गुंडा है जैसे अल्फ़ाज़ का इस्तिमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। लेकिन उस वक़्त अदना ख़ादिम भी आता तो तशरीफ़ रखिए कहा जाता था।

वालिद साहब के बारे में मशहूर था कि कभी उन्होंने दूसरों को सलाम करने का मौक़ा नहीं दिया। हमेशा सलाम करने में पहल करते थे। पयाम के एडिटर अख़तर हसन साहब ने मंसूबा बंद तरीक़े से एक दिन सलाम करने की पहल की, लेकिन उस दिन उन्होंने जिस को सलाम किया वो वालिद साहब का ख़ादिम निकला।
पुलिस एक्शण के वक़्त वालिद महकमे इत्तिलाआत के नायब नाज़िम थे। जे एन चौधरी ने उन्हें तिरुमल गिरी में हाज़िर होने का समन जारी किया। जब वो चौधरी से मिलने गए तो चौधरी ने उन्हें देख कर कहा तुम कौन हो? मैंने जानकी प्रशाद को बुलाया है। जब उन्होंने कहा कि में ही जानकी प्रशाद हूँ तो जवाब में चौधरी ने कहा मुझे धोखा दे रहे हो, तुम्हारे लिबास से तो मालूम होता है कि तुम मुसलमान हो। वालिद साहब उस वक़्त शेरवानी, पायजामा और रूमी टोपी में मलबूस थे। उन्हों ने कहा ये मेरा रोज़मर्रा का लिबास है। ये किसी के आने जाने से नहीं बदलेगा। उनकी इस बात में सदाक़त थी। ये भी सच है कि लोग निज़ाम की हुकूमत के इख़तेताम के बाद अपना लिबास ही नहीं बल्कि तहज़ीब भी बदलने लगे थे। कहीं कहीं तो ये तबदीली दो चार दिन में ही दिखाई देने लगी थी। लेकिन कुछ कायसथों ने फ़र्शी सलाम , शेरवानी और दस्तार बंदी को बहुत दिनों तक ज़िंदा रखा।

जब लड़की हड़बड़ाहट में उर्दू बोलने लगी
हैदराबाद की तहज़ीब दुनिया के दीगर शहरों से कई माअनों में अलग है। मेरी इब्तिदाई तालीम चादर घाट स्कूल में हुई। वहां के प्रिंसिपल मुहम्मद पिक्थाल की शख़्सियत भी तालिब-ए-इल्मों पर ख़ासी असरअंदाज़ हुआ करती। जब उस्मानिया यूनीवर्सिटी में दाख़िला लिया तो फ़ख़्र था कि दुनिया की पहली उर्दू यूनीवर्सिटी में पढ़ रहे हैं, लेकिन मैंने जब मेडिकल कॉलिज में दाख़िला लिया तो ज़रिये तालीम अंग्रेज़ी में तबदील होचुका था। फिर भी उर्दू का असर क़ायम था मेरे सीनीयर उर्दू में तीन साल तक मेडिकल की तालीम हासिल कर चुके थे। आली हज़रत ने मेडिकल कॉलिज में पढ़ाने के लिए डॉ. बहादुर ख़ां को लंदन से बुलाया था। डॉ.शाह नवाज़ , डॉ. शांति नारायण माथुर , डॉ.श्रीधर नायडू, डॉ. किर्लोसकर जैसे कई नाम थे। जिन्होंने हैदराबाद में नुमायां ख़िदमात अंजाम दीं। जब उस्मानिया हॉस्पिटल तामीर हुआ तो डॉ. बहादुर ख़ान को अहम ज़िम्मेदारी दी गई। उस वक़्त के डाक्टर ज़्यादा तर उर्दू का ही इस्तिमाल करते थे। मरीज़ की ज़बान उर्दू थी। हालाँकि बाद में हैदराबादी डाक्टरों ने भी अंग्रेज़ी का इस्तिमाल किया लेकिन में और डाक्टर मन्नान तरकीब-ए-इस्तेमाल उर्दू में ही लिखते रहे। ख़्याल ये था कि मरीज़ अपनी कैफ़ियत अपनी मादरी ज़बान में बेहतर ढंग से डाक्टर को समझा सकता है और डाक्टर के मश्वरे को भी समझ सकता है।

एक बार का वाक़िया है कि एक बुर्क़ापोश लड़की मेरे क्लीनिक पर आई। मैंने उसकी हालत जानने के लिए उर्दू में बातचीत की। लेकिन वो हर सवाल का जवाब अंग्रेज़ी में ही देती रही। फिर मैंने उसको अंग्रेज़ी में कुछ भारी भरकम बीमारियों के नाम बताए तो वो घबरा गई और हड़बड़ाहट में उर्दू में पूछने लगी वो क्या होता है डाक्टर साहब ? जब उसको मेरे अंग्रेज़ी में बोलने का मक़सद समझ में आया तो वो बहुत शर्मिंदा हुई। और वादा किया कि फिर कभी उर्दू बोलने वाले डाक्टर को अपनी हालत अंग्रेज़ी में नहीं बताएगी।

उर्दू मेरी मादरी ज़बान
जब मैं अपने ज़माने के लोगों की मादरी ज़बान के बारे में ग़ौर करता हूँ तो महसूस होता है कि उर्दू बोलने वाले लोग बहुत सेकूलर होते हैं और कायसथों और खत्रियों की अपनी कोई ज़बान नहीं होती, जहां वो रहते हैं वहीं की ज़बान को अपना लेते हैं। हमारा ख़ानदन तो यू पी में भी उर्दू बोलता था और हैदराबाद में भी उर्दू ही हमारी ज़बान रही।

स्कूल और कॉलिज में भी मादरी ज़बान के ख़ाने में यही ज़बान लिखवाई। इलेक्शन के ज़माने में दो ख़वातीन मेरे घर पर आईं। शायद टीचर थीं। जब उन्होंने इलैक्शन का फ़ार्म भरा और मादरी ज़बान के बारे में पूछा तो मैंने उर्दू बताया। पहले तो उन्होंने मज़ाक़ समझा और फिर से पूछा मैंने फिर उर्दू बताया। उनको यक़ीन नहीं आया। वो तेलुगु ज़बान में बात कर रही थीं। उन्होंने कहा उर्दू तो तुर्कों (मुस्लमानों) की ज़बान है आप की कैसे होसकती है ? हम हिन्दी लिख देते हैं। मुझे बहुत ग़ुस्सा आया और मैंने सख़्ती से कहा कि उर्दू ही लिखें और उन्हें बताया कि उर्दू कई हिंदुओं की मादरी ज़बान है और अगर उसकी जगह दूसरी ज़बान का नाम लिखवाएं तो यक़ीनन सरकारी रिकार्ड में उर्दू बोलने वालों की तादाद कम जाएगी।

मैं ही नहीं मेरे घर में ख़ुसूसन मेरी बेगम भी उर्दू में बात करती हैं, बल्कि घर की ज़बान भी उर्दू ही है। हालाँकि नई नसल के लोग हमें ऐसा करते हुए देख कर ये सोचते हैं कि हम पर मुस्लमानों का असर बहुत ज़्यादा है बल्कि कुछ तो हमें मुस्लमान ही समझ बैठते हैं। भला कोई ज़बान से भी मुस्लमान होता है , ऐसा हुआ तो अंग्रेज़ी बोलने वाले सारे क्रिस्चियन होजाएंगे।

गंगा जमुनी तहज़ीब
आज लोग पूछते हैं कि ये गंगा जमुनी तहज़ीब क्या है। हैदराबाद में गंगा है और न जमुना तो फिर उस तहज़ीब का उनसे क्या रिश्ता? असल में ज़ात पात को भूल कर हर किस्म के लोग शीर-ओ-शकर की तरह रहे। जब शकर दूध में घुल जाये तो पता न चले कि शकर कहाँ गई है? इसी तहज़ीब का नाम गंगा जमुनी है। अब लोग अपने अपने दायरे बनारहे हैं। इस के पीछे यक़ीनन उनके ज़ाती मुफ़ाद भी शामिल हैं। मेरी वालिदा मुहर्रम में शरबत बनातीं, बच्चों को हरे रंग की शर्ट पहनातीं, हालाँकि अब वो चलन नहीं रहा, लेकिन ईदों पर आज भी इतर का फ़ाया और मिठाईआं दीवानख़ाने में रखी जाती हैं, ताकि लोग आएं तो ईद की ख़ुशी का एहसास हो। हम चाहते हैं कि आने वाली नसलें भी ये तहज़ीब ना भूलें। बड़ों का अदब इसी तहज़ीब का हिस्सा है। मैं जब वालिद के कमरे के पास से गुज़रता तो अपने जूते उतार लेता ताकि उन की नींद में ख़लल ना हो।

प्रैक्टिस की गोल्डन जुबली
अपनी तहज़ीब में जो लुत्फ़ आता है भला आज की लाईफ़ स्टाइल में कहाँ? इसी तहज़ीब का हिस्सा बन कर मैंने अपनी प्रैक्टिस की गोल्डन जुबली मनाई। तिब्ब में भी बड़े मुहज़्ज़िब लोग थे। ईमानदार तो थे ही लेकिन पेशे को कभी तिजारत नहीं समझा, रोटी रोज़ी अल्लाह ऐसे ही देता रहा। लालच की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। बल्कि कभी इतने हिसाब किताब के भी क़ाइल नहीं थे कि मुक़र्ररा फ़ीस ही ली जाये। कई बार ये भी देखने में आया कि मरीज़ के पास फ़ीस नहीं है। बीमारी बड़ी मोहलिक है और वो बताना भी आप ही को चाहता है ऐसे में डाक्टर का फ़र्ज़ बनता है कि वो मरीज़ का ईलाज फ़ीस के लालच के बगै़र करे। फीसदी तो दी। नहीं दी तो नहीं। कभी तो मेडिकल से दवाईयां ख़रीदने के लिए भी मरीज़ को डाक्टर अपनी जेब से पैसे दे देते थे।

रात के डाक्टर
उस ज़माने के डाक्टरों की इंसानी हमदर्दी के क़िस्से मशहूर हैं। डॉ.मन्नान, निज़ाम के डाक्टर बंकट चन्द्र, उनकी फ़ीस बहुत कम थी । आर आर सक्सेना एक डाक्टर थे। रात के डाक्टर के तौर पर मशहूर थे। रात के दो बजे तक क्लीनिक में रहते और मरीज़ों की जब क़तार लंबी होजाती तो उन के घरों के पत्ते ले लेते। 2 बजे के बाद अपनी मोटर में उन के घर पहुंच जाते। अपना खाना भी मोटर में ही रख लेते। चार कमान पर इन का क्लीनिक था और अगर किसी मरीज़ के घर रात में दरवाज़े पर खटका बजा तो समझ लिया जाता कि डाक्टर सक्सेना ही होंगे । उस ज़माने में हकीम भी मशहूर थे। ईसा मियां बाज़ार में एक हकीम थे, जिन के पास हलवे बनाने के लिए 20 मज़दूर थे। उन्हों ने बहुत नाम कमाया , लेकिन फुट की तरफ़ नज़र, कभी नहीं की।

अब हालात बदल गए हैं। लोग डाक्टर इस लिए बिन रहे हैं क्यों कि इस में आमदनी ज़्यादा है। उन को समझ लेना चाहीए कि क़ाबिलियत है तो किसी भी पेशे में ख़ाह जंगल में ही क्यों ना बैठना पड़े कमा ही लेंगे। ये भी याद रखें कि अगर नज़र सीधे आमदनी पर हो तो इलम के मानी समझ में नहीं आते। सही डाक्टर तो वो है कि मरीज़ को देखते ही इस के दिमाग़ में दवा और तशख़ीस का तरीक़ा फ़ौरी आजाए। आजकल लीबारटरी की सहूलतों ने डाक्टरों को और काहिल बनादिया है।