हैदराबाद जो कल था – मुस्तफ़ा शहाब

मुस्तफ़ा शहाब हैदराबाद बल्कि हिंदुस्तान के उन चंद अदीबों, शायरों में से एक हैं जो पिछली सदी में तर्क-ए-वतन करके यूरोप और अमरीका में जा बसे, लेकिन अपने वतन और अपनी मादरी ज़बान से अपना रिश्ता उस्तिवार रखा। वतन से उन की वाबस्तगी का ये आलम है कि वो वक़फ़े वक़फ़े से अपने शहर पहले जो ज़ेर क़दम थीं अब वो गलियां दिल में हैं के मिस्दाक़ आते रहते हैं। क़दीम दोस्तों से मिलते हैं। पुरानी यादों को ताज़ा करते हैं और नई यादें समेट कर ले जाते हैं।

जब मुस्तफ़ा शहाब हैदराबाद से गए थे तो शायर नहीं थे। उन्होंने बचपन की बजाय पचपन में शायरी शुरू की। लेकिन उनकी शायरी पढ़ने से अंदाज़ा होता है कि शेअर का बीज बचपन में ही उन के ज़हन-ओ-दिल में पड़ चुका था ये और बात है कि इस के समर आवर होने में कुछ अर्सा लग गया। उनकी शेर गोई की इब्तिदा भी कुछ अफ़सानवी सी है। हुआ यूं कि मशहूर शायर राशिद आज़र कुछ दिनों के लिए लंदन में उनके घर मेहमान हुए। मेहमान और मेज़बान में दिन रात उठते बैठते शेर वादब की बातें होती रहें। एक सुबह मुस्तफ़ा शहाब ने राशिद आज़र को अपनी पहली ग़ज़ल सुनाई जो दोनों की रोज़-ओ-शब की सुहबतों का हासिल थी।
फिर तो जैसे दरिया का बंद टूट गया। शाम ढले सवेरा सफ़र आमादा आंधी सरे शाम काग़ज़ की कश्तियां मंज़रे आम पर आ गईं।

जिस शायरी के पहले सामा और मद्दाह राशिद आज़र थे आज इस के मद्दाह सारी उर्दू दुनिया में फैले हुए हैं। देर आयद दरुस्त आयद शायद उसी को कहते हैं। जनवरी 2014 में मुस्तफ़ा शहाब हैदराबाद में थे। मुज्तबा हुसैन साहिब ने उन से बातचीत की, जिसका खुलासा यहाँ पेश है।

मेरा असल नाम मुस्तफ़ा अली ख़ान है हैदराबाद के एक मुअज़्ज़िज़ ख़ानदान से ताल्लुक़ है। दादा हकीम मंसूर अली ख़ां मुरादाबाद के रहने वाले थे। उन्नीसवीं सदी में हैदराबाद आए और आसिफ़ जाह शशुम नवाब मीर महबूब अली ख़ां के अतालीक़ मुक़र्रर हुए। आप महाराजा किशन प्रशाद के भी उस्ताद थे। महाराजा भी उन की बहुत इज़्ज़त करते थे। हर रोज़ एक ख़त महाराजा के पास से आता और यहां से उसका जवाब जाता। इब्तिदा में हमरा ख़ानदान हुसैनी इलम में रहता था। बाद में वालिद ने हिमायत नगर में मकान बनवाया और यहीं मेरी पैदाइश हुई। उन दिनों मकानों की तामीर इस तरह होती थी कि घर दो हिस्सों में मुनक़सिम होता था। मर्दाना हिस्सा और ज़नाना हिस्सा। बच्चे इब्तिदा में वालिदा की निगहदाशत में ज़नाना हिस्से में रहते। होश सँभालने के बाद मर्दाना हिस्से में आते जाते थे। निज़ाम हैदराबाद मीर उसमान अली ख़ां वालिद हकीम मक़सूद जंग के बड़े मोतक़िद थे। हकीम मक़सूद जंग बड़े माहिर तबीब थे। उस ज़माने में तिब्ब यूनानी का दौर दौरा था।

एलोपैथी को कोई पूछता भी नहीं था। हकीम मक़सूद जंग मरहूम यूनानी दवाखाने के सदर थे। शहर के बेशुमार लोग हकीम मक़सूद जंग के ज़ेर-ए-इलाज रह चुके थे।
उन दिनों माहौल ऐसा था कि लोग एक दूसरे की ख़बरगीरी करते थे और अच्छे बुरे में शरीक रहते थे। घर के नौकर और आयाएं भी छोटे बच्चों की कड़ी निगरानी करती थीं। प्राइमरी स्कूल के दिनों में मैं और एक साथी ने क़ैंची सिगरेट ख़रीदा और स्कूल के क़रीब एक ज़ेर-ए-ज़मीन वार शलटर (ar Shelter) में जा कर सिगरेट पीने लगे। (ये दूसरी जंग-ए-अज़ीम का ज़माना था जब फ़िज़ाई हमलों से बचने के लिए ए आर पी सैंटर Air raid Precaution centre बनाए गए थे)। आया ने देख लिया और थप्पड़ मार कर सिगरेट छीन लिया। किसी ने आया की सरज़िन्श नहीं की लेकिन बच्चों को सज़ा दी।

इबतिदाई तालीम वर्ल्ड फ़ैमिली स्कूल अदन बाग़, मदरसा आलिया और ऑल सेंट्स हाई स्कूल में हुई लेकिन मैट्रिक अलीगढ़ से की। घर में उर्दू माहौल था। उस ज़माने में मक़बूल अहमद सेवहार्वी साहब बच्चों के लिए किताबें लिखते थे और हमारे घर पहुंचाते थे। मैं माहनामा खिलौना और मुस्लिम ज़ियाई के रिसाले तारे में कहानियां भेजता। एजाज़ हुसैन खट्टा और मिर्ज़ा ज़फ़र उल-हसन रेडियो पर बच्चों के प्रोग्राम पेश करते थे जिस में मैंभी हिस्सा लेता था। ऑल सेंट्स हाई स्कूल में उर्दू भी पढ़ाई जाती थी। अलीगढ़ से जब इंटरमीडीयेट कामयाब किया तो मैडीसन में दाख़िला मिल सकता था, लेकिन दोस्तों के कहने पर आर्टस के मज़ामीन ले लिए।

निज़ाम कॉलिज से तालीम मुकम्मल की। निज़ाम कॉलिज में इन दिनों बड़ा अच्छा अदबी माहौल था। उन्ही दिनों एक नई चीज़ उर्दू फेस्टिवल की दाग़ बेल पड़ी। शतारी साहिब उर्दू पढ़ाते थे। ग़ुलाम दस्तगीर रशीद साहिब फ़ारसी के उस्ताद थे। एक साल आग़ा हैदर हसन मिर्ज़ा ने भी पढ़ाया। उर्दू फेस्टिवल में शाम मूसीक़ी, मुशायरा और ड्रामे भी रखे जाते थे। ख़्वाजा मुईनुद्दीन साहिब, ज़फ़र उल-हसन और फ़ज़ल अलरहमान साहिब के ड्रामे स्टेज किए गए थे। मुस्तफ़ा शहाब ने बाअज़ ड्रामों में मर्कज़ी किरदार भी अदा क्या। इन मुशाविरों में साहिर, कैफ़ी और मजरूह भी शरीक हुए। शाम ग़ज़ल के फ़नकारों को विट्ठल राव तर्बीयत देते थे। उन दिनों निज़ाम कॉलिज में श्याम बेनेगल से भी मुलाक़ात रहती थी। तालिबे इलमी के ज़माने में कभी माली हालत ऐसी भी रहती थी कि एक चाय की प्याली तीन दोस्त मिल कर पीते थे।

वालिद के अहबाब का हलक़ा निहायत वसीअ था। बाबाए उर्दू मौलवी अबदुलहक़, फ़साहत जंग जलील, जोश मलीहाबादी और जिगर मुरादाबादी भी उन के घर आते थे। जिगर साहिब अपने ईलाज के सिलसिले में भी हकीम मक़सूद जंग से रुजू करते थे और फ़र्माइश पर अपने दिल नशीन तरन्नुम में कलाम भी सुनाते थे। वैसे तो मेरा ज़रिया ए तालीम अंग्रेज़ी था लेकिन बच्चों के रिसाले जैसे फूल, खिलौना और मुस्लिम ज़ियाई का पर्चा तारे घर आता था।

जारी ….