हैदराबाद में मुस्लमानों की रहमदिली और इंसानियत नवाज़ी मिसाली

हैदराबाद फ़र्ख़ंदा बुनियाद के मुस्लमानों के जज़बा सिला रहमी , हमदर्दी मुहब्बत-ओ-मुरव्वत इंसानियत नवाज़ी , ग़मगुसारी , गरीब पर्वरी को हिंदूस्तान भर में बड़ी इज़्ज़त की निगाह से देखा जाता है जब कि बाअज़ फ़िर्क़ा परस्तों को इस तारीख़ी शहर के मुस्लमानों की ये खूबियां एक आँख नहीं भातें ।

माह रमज़ान उल-मुबारक के दौरान एक माह तक हिंदूस्तान के मुख़्तलिफ़ शहरों से ज़रूरत मंद गुरबा-ओ- मसाकीन और फ़ोक्रा-हैदराबाद पहूंचे जहां उन्हें मुस्लमानों ने दिल खोल कर ख़ैरात दी । चुनांचे ईद उल फ़ितर के मौक़ा पर हमारी मुलाक़ात एक एसे मासूम फ़क़ीर से हुई जो पैदाइशी तौर पर दोनों हाथों से महरूम है ।

हम ने देखा कि इंतिहाई ख़ूबसूरत और हाथों से महरूम लड़का अल्लाह के नाम पर दो अल्लाह के नाम पर दो की सदाएं बुलंद कर रहा था और लोग जौक़ दर जौक़ उस की जानिब बढ़े पैसे डाल रहे थे चूँकि बग़लों से ही इस के हाथ नहीं थे इस लिये वो एक कियान को मुंह में थामे बड़ी साफ़ उर्दू में सदाएं बुलंद कर रहा था ।

हम कुछ देर तक इस पर ही नज़र रखे हुए थे कि अचानक एक औरत आई नोटों से भरे कियान और पैसों से भरी चादर को ख़ाली किया और वहां से हट गई हमें ताज्जुब हुआ और इस के करीब पहूंच गए इस औरत ने बताया कि लड़के का नाम जावेद है और वो उस की माँ है

लेकिन औरत की हालत और इस के ख़द्द-ओ-ख़ाल को देख कर हमें यक़ीन ही नहीं हुआ कि ये मुस्लिम ख़ातून हो सकती है और हमारा शक दरुस्त निकला वो दरअसल कर्नाटक के शाहाबाद की रहने वाली कमूबाई और 6 साला सदानंद निकले सिर्फ़ हमदर्दी-ओ-ख़ैरात हासिल करने के लिये ख़ुद को मुस्लमानों की हैसियत से पेश कर रहे थे ।

रमज़ान में सदानंद को खासतौर पर हैदराबाद लाया जाता है ताकि लोगों की हमदर्दियां हासिल करते हुए ख़ैरात वसूल की जा सके । इस सवाल पर कि आख़िर ख़ैरात के लिये इसी शहर का रुख क्यों करते हो ? कमूबाई ने बताया कि यहां के मुस्लमान बहुत रहमदिल होते हैं वो माज़ूरों और गरीबों की मजबूरी नहीं देख सकते इस लिये हर कोई हैदराबाद का ही रख करता है ।

इस के इलाक़ा में जितने माज़ूर और गरीब हैं वो भी हैदराबाद का रुख करते हैं ताकि यहां रमज़ान उल-मुबारक के दौरान उन्हें भी कुछ ख़ैर ख़ैरात मिल जाय । कमूबाई ने बताया कि वो लोगों को सदानंद का नाम जावेद और अपना नाम आशा बताती है ।

हैदराबाद में वो जो भी दुकान यह मकान पर जाते हैं कहीं से भी उन्हें ख़ाली हाथ नहीं लौटाया जाता । कमूबाई के मुताबिक़ इद की शाम ही अपने आबाई मुक़ाम के लिये रवाना होजाती है ।

इस ने एक अहम इन्किशाफ़ ये किया कि सारे रमज़ान के दौरान जितनी ख़ैरात मिलती है उतनी ही ख़ैरात जमाता उल-विदा और ईद के दिन मिल जाती है वो सदानंद से जमाता उल-विदा के वक़्त मक्का मस्जिद और ईद के दिन ईदगाह मीर आलम पर भीक मंगवाती है ।

यहां इस बात का तज़किरा ज़रूरी होगा कि हैदराबाद हो कि किसी और इलाक़ा का मुस्लमान ख़ैरात देने में हिन्दू मुस्लिम का इम्तियाज़ नहीं करता क्यों कि वो गरीबों की इमदाद करना भूकों को खाना खिलाने और नंगों को कपड़ा पहनाने को इबादत तसव्वुर करता है ।