है सबके लबों पर तराना रज़ा का

आला हज़रत मौलाना अहमद रज़ा ख़ान फ़ाज़िल बरेलवी रह० की विलादत १० शव्वाल अल मुकर्रम १२७२ हि० क़ो हुई। आपने चार साल की उम्र में नाज़रा-ए-क़ुरआन मजीद की तकमील की। ज़हानत-ओ-फ़तानत अल्लाह तआला ने आप को ख़ूब अता किया था। बेशतर इल्म वालिद साहिब से हासिल की, अलबत्ता इब्तिदाई तालीम के लिए आपने दीगर असातिज़ा के सामने ज़ानवे तलम्मुज़ तहा किया।

चौदह साल की उम्र में उलूम मुरव्वजा की तहसील से फ़ारिग़ हुए। इसके बाद जिस मौज़ू पर भी आपने क़लम उठाया इस पर मुदल्लिल और मुफ़स्सिल बहस की। आपकी तक़रीबन एक हज़ार किताबों का पता चलता है।

हज़रत इमाम अहमद रज़ा हनफ़ी कादरी बरेलवी रह० अलैहि अपने दौर की इन अबक़री शख़्सियतों में शुमार किए जाते हैं, जिनके उलूम-ओ-फ़ज़ल का चर्चा था। दीनी, इल्मी और अख़लाक़ी हर ऐतबार से आप अपने दौर के उल्मा में मुमताज़ रहे। जिन उल्मा ने आपकी तसानीफ़ का गहराई से मुताला किया, वो ये कहने पर मजबूर हुए कि इमाम अहमद रज़ा सरापा इल्म का नाम है।

इल्म के हर मैदान ख़ाह वो तर्जुमा-ए-क़ुरआन हो, इल्म तफ़सीर-ओ-हदीस हो या इल्म फ़िक़्ह हो, आपने अपने इल्म का लोहा मनवाया।

हज़रत मौलाना अहमद रज़ा ख़ान फ़ाज़िल बरेलवी रह० अलैहि एक सच्चे आशिक़ ए रसूल थे, क़दम क़दम पर अपने आक़ा स०अ०व० के फ़रमान‍ ओ‍ सुन्नत की पैरवी करते। यही वजह है कि आपने कभी भी और किसी हालत में भी नमाज़ को वक़्त से मुअख्खर( ताखीर) नहीं किया।

नमाज़ बड़ी से बड़ी बीमारी और इंतिहाई कमज़ोरी की हालत में भी माफ़ नहीं। अगर होश-ओ-हवास बाक़ी हैं तो उसे हर हाल में अदा करना है, अलबत्ता उसकी अदायगी के तरीक़ों में नरमी और आसानी का ये लिहाज़ किया गया है कि खड़ा होना मुश्किल हो तो एसा के सहारे से नमाज़ अदा करो, बैठने की सकत ना हो तो किसी चीज़ से टेक लगा लो, उसकी भी क़ुदरत ना हो तो लेटे लेटे इशारा से ही अल्लाह का सजदा और उसकी बंदगी बजा ला।

ताजदार ए कायनात स०अ०व० का फ़रमान है कि खड़े होकर नमाज़ पढ़ो, अगर इतनी ताक़त ना हो तो बैठ कर पढ़ो और अगर ये भी ना हो सके तो लेट कर इशारा से अदा करो। ख़ुद हुज़ूर सरवर-ए-कायनात स०अ०व० का यही अमल रहा कि अपनी अलालत और ज़ोफ़ की हालत में आप ( स०अ०व०) ने बैठ कर नमाज़ अदा की।

आला हज़रत फ़ाज़िल बरेलवी रह० इरशाद नबवी स०अ०व० की अमली तस्वीर थे। क़ुदरत है तो खड़े होकर नमाज़ में मशग़ूल हुए, जिस्म में ताक़त नहीं तो एसा के सहारे क़ियाम किया, लेकिन कभी राहत नफ्स के लिए आपने नमाज़ नहीं छोड़ी। हज़रत मौलाना अबदुस्सलाम साहब के नाम अपने एक मकतूब (मोरखा ४ रबीउल आखिर १३३४ हिजरी) में तहरीर फ़रमाते हैं कि दो ढाई साल से अगरचे दर्द कमर-ओ-मर्ज़ मसाना वग़ैरा से दो चार हूं, नमाज़ में क़ियाम बज़रीया एसा कर रहा हूँ, मगर अल हमदो लिल्लाह! अल्लाह तआला ने दीनी हक़ पर इस्तिक़ामत अता फ़रमाई है।

२२ साल की उम्र में हज़रत सैयद शाह आल-ए-रसूल मारहरवी रह० अलैहि के दस्त ए हक़परस्त पर बैअत हुए और उसी वक़्त इजाज़त-ओ-ख़िलाफ़त से भी सरफ़राज़ हुए। आपको दो मर्तबा हज-ओ-ज़यारत की सआदत नसीब हुई। पहला हज १२९५ हमें अपने वालदैन के साथ किया, जबकि दूसरा हज १३३२ में किया।

अल-ग़र्ज़ मौलाना अहमद रज़ा ख़ान कादरी बरकाती रह० अलैहि गौना गों सिफ़ात और ख़ूबीयों के मालिक थे, पूरी ज़िंदगी क़ुरआन‍ ओ‍ सुन्न्तत का पैग़ाम आम करते रहे और मुहब्बत रसूल स‍०अ०व० का दरस देते रहे। यहां तक कि आप ने ये वसीयत और नसीहत फ़रमाई कि अगर किसी को बारगाह ए रिसालत का ज़रा भी गुस्ताख देखो तो वो तुम्हारा कैसा ही बुज़ुर्ग और मुअज़्ज़म क्यों ना हो, अपने अंदर से इसे दूध से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दो।

आला हज़रत का विसाल २५ सफ़र अल मुज़फ्फ़र १३४० हि० क़ो हुआ। आपका मशहूर-ए-ज़माना सलाम मस्तफ़ा जान-ए-रहमत पे लाखों सलाम बर्र-ए-सग़ीर बिलख़सूस हिंद।पाक में हर जगह पढ़ा जाता है। —-(जनाब सैयद सिकन्दर रज़ा)