अमीर उल मोमिनीन हज़रत सैय्यदना उमर फ़ारूक़ रज़ी० के ख़ादिम असलम बयान करते हैं कि एक दफ़ा सैय्यदना फ़ारूक़ ए आज़म रज़ी० ने अपने एक ग़ुलाम को एक सरकारी चरागाह का निगरान मुक़र्रर किया और इसे काम से मुताल्लिक़ हिदायात देते हुए फ़रमाया कि:
मुसलमानों के साथ नरम रवैय्या इख़तियार करना और मज़लूम की बद्दुआ से बचना, क्योंकि वो अल्लाह तआला के यहाँ बहुत जल्द मक़बूल होती है।
ऊंटों और बकरीयों वालों को इस चरागाह में आने से ना रोकना। हज़रत अबदुर्रहमान बिन औफ़ और हज़रत उसमान बिन अफ्फान (रज़ी०) के जानवरों को इस सरकारी चरागाह में चरने देना, क्योंकि अगर इन दोनों के जानवर हलाक हो गए तो ये लोग खेती बाड़ी और खजूर के बाग़ात की तरफ़ रुजू करेंगे और जिहाद के लिए नहीं निकल सकेंगे, जबकि हमें जिहाद के लिए इन जैसे बहादुर लोगों की सख़्त ज़रूरत है।
ऊंटों और बकरीयों के रेवड़ भूख के बाइस हलाक हो गए तो इनके मालिकान अपने बच्चों समेत मेरे पास आ जाएंगे और कहेंगे कि अमीर उल मोमिनीन हमारी हाजत पूरी फ़रमाईए!। ऐसी सूरत में क्या मैं उन्हें ख़ाली हाथ वापस भेज सकता हूँ?।
आज उन चरागाहों के लिए पानी और घास की फ़राहमी हुकूमत के लिए आसान है, लेकिन जब इनके जानवर ना रहेंगे और ये मुहताज हो जाएंगे तो फिर उन्हें बैत-उल-माल से सोना और चांदी इमदाद के तौर पर देना पड़ेगा। अगर किसी को कम इमदाद मिली तो ये लोग ख़्याल करेंगे कि में इन पर ज़ुल्म कर रहा हूँ।
कसम है उस ज़ात की, जिसके हाथ में मेरी जान है, मैं इन चरागाहों पर ख़र्च करके लोगों को जिहाद के लिए तैयार कर रहा हूँ। अगर ऐसा ना होता तो मैं इनके शहरों की क़ीमती ज़मीन को कभी चरागाह के तौर पर इस्तेमाल ना करता। (तारीख़ उल-इस्लाम लज़हबी, अहदुल खुलफ़ा ए राशिदीन, सफ़ा २७२)