क़यामत बरहक़ है

मैं क़सम खाता हूँ रोज़ ए क़यामत की और मैं क़सम खाता हूँ नफ़्स-ए-लव्वामा की (कि हश्र ज़रूर होगा)। क्या इंसान ये ख़्याल करता है कि हम हरगिज़ जमा ना करेंगे उसकी हडीयों को। क्यों नहीं हम इस पर भी क़ादिर हैं कि हम उसकी उंगलीयों की पुर पुर दरुस्त कर दें। (सूरतुल क़ियामा।१ता४)

अल्लामा क़ुरतबी लिखते हैं कि अबुलैस समरकंदी का क़ौल है कि तमाम मुफ़स्सिरीन का इस बात पर इत्तिफ़ाक़ है कि ला उक सिमू का मानी मायने है मैं क़सम खाता हूँ। दूसरी कसम नफ़्स-ए-लव्वामा की खाई जा रही है। हज़रत हसन बसरी रह० के नज़दीक नफ़्स-ए-लव्वामा मोमिन का नफ़्स है, जो हर वक्त अपनी कोताहियों और गफलतों पर अपने आप को मलामत करता रहता है।

सोफिया किराम का इरशाद है कि नफ़्स सरकश को नफ़्स-ए-अम्मारा कहते हैं, क्योंकि वो हर वक्त बुरे कामों का हुक्म करता रहता है, लेकिन अल्लाह तआला की याद में कोशां हो जाता है तो मौला ए करीम की ख़ुसूसी तवज्जा और गज़ब से इस पर इसके अपने उयूब-ओ-नक़ाइस मुनकशिफ़ हो जाते हैं।

जिस पर वो पशेमान होता है और अपने आप को बुरा भला कहता रहता है। इस नफ़्स को नफ़्स-ए-लव्वामा कहते हैं। जब वो हर मासिवा से क़ता ताल्लुक़ कर लेता है और अल्लाह तआला के ज़िक्र से इसका दिल मुतमईन हो जाता है तो उस को नफ़्स-ए-मुतमइन्ना कहते हैं।

हर वो इंसान जो क़यामत पर यक़ीन नहीं रखता इसी किस्म के वसवसों में फंसा रहता है। वो जब ये सोचता है कि लोगों को मरे हुए सैकड़ों हज़ारों साल गुज़र चुके हैं और कहीं का कहीं उड़ाकर फेंक आए। दश्त-ओ-जबल में बिखरे हुए इन ज़र्रों का इकट्ठा हो जाना कैसे बावर कर लिया जाये।

यानी इस नतीजा पर पहुंचते हैं कि क़यामत की कोई हक़ीक़त नहीं है, जब कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने क़सम याद फ़रमाते हुए क़यामत के वाकेय होने को यक़ीनी बताया है।