कौन है जो दे अल्लाह ताआला को क़र्ज़ हुस्न तो बढ़ा दे अल्लाह इस क़र्ज़ को इस के लिए कई गुना, और अल्लाह ताआला ही रिज़्क को तंग और फ़राख़ यानी कुशादा करता है और उसी की तरफ़ तुम लौटाए जाओगे।(सूरे बक़रा , आयत २४५)
लुग़ते अरब में क़र्ज़ का ये मफ़हूम नहीं जो हम उर्दू में उस को समझा करते हैं कि किसी को किसी चीज़ की ज़रूरत महसूस हुई तो वो अपने पास ना पाया, इस लिए दूसरे से उधार लेकर पूरी करली।
क्यूंकि अल्लाह ताआला जो ग़नी्यौ हमीदौ है ज़रूरत के तसव्वुर से भी पाक है बल्कि यानी क़र्ज़ हर वो चीज़ या अमल है जिस पर जज़ा और बदला तलब किया जाये।(क़रतबी) अब किसी किस्म का ख़ुलजान पैदा ही ना होगा।
पहले क्यूंकि जिहाद का हुक्म दिया गया था और जिहाद के लिए रुपये की ज़रूरत होती है इस लिए उस हुसन बयान से अहल इस्लाम को अपना सरमाया अल्लाह ताआला की राह में क़ुर्बान करने के लिए शौक़ दिलाया जा रहा है यानी ये मत समझो कि ये रक़म ख़र्च होगई तो फिर वापिस नहीं मिलेगी बल्कि अल्लाह ताआला इस का तुम्हें कई गुना मुआवज़ा देगा।
क़र्ज़ अगर मफ़ऊल के मानी हो तो हुस्न की सिफ़त से ये मुराद होगा कि जो माल अल्लाह की राह में ख़र्च करो वो हलाल और पाक हो। और अगर क़र्ज़ अपने मसदरी मानी में ही इस्तेमाल हुआ हो तो फिर हुस्न से मुराद ये होगा कि क़र्ज़ दो तो ख़ुलूस से दो। ख़ुशी ख़ुशी दो।(मज़हरी)