क़लम की अहमीयत-ओ-इफ़ादीयत

नून : क़सम है क़लम की और जो कुछ वो लिखते हैं। (सूरतुल-क़लम: १) क़लम से बाअज़ हज़रात ने वो क़लम मुराद लिया है, जिस ने अमरे इलाही से तक़ादीर आलम को लौह ए महफ़ूज़ में तहरीर किया, जिस की माहीयत से अल्लाह तआला ही आगाह है। अक्सर उल्मा की राय ये है कि क़लम से मुराद जिंस क़लम है और उसी की क़सम खाई जा रही है।

उलूम-ओ-फ़नून, नज़रियात-ओ-अफ़्क़ार की तालीम और इशाअत में बेशक ज़बान की क़ुव्वत बयानिया का बड़ा हिस्सा है, लेकिन इसकी इफ़ादीयत ज़मान-ओ-मकान की हद बंदीयों में महसूर है, जब कि क़लम एक ऐसा आला है जो ज़मान-ओ-मकान की मुसाफ़तों को तस्लीम नहीं करता।

वो गुज़श्ता सदियों के उलूम-ओ-फ़नून से हाल और मुस्तक़बिल को रोशन करता है और दूर दराज़ इलाक़ों में पैदा होने वाले हुकमा -ओ- फज़ला के अफ़्क़ार-ओ-नज़रियात को दुनिया के गोशे गोशे तक पहुंचाता है।

क़ुरआन ए हकीम, जो इम्म-ओ-हिक्मत की बरतरी का अलमबरदार है, जिस ने आदम ख़ाकी की अज़मत का राज़ इस बात को क़रार दिया है कि इसका सीना उलूम-ओ-फ़नून का गंजीना था। कोई मख़लूक़ यहाँ तक कि नूरी फ़रिश्ते भी उस की हमसरी का दावा नहीं कर सकते।

इसलिए क़ुरआन-ए-करीम ने क़लम को जो इल्म की नशर-ओ-इशाअत का मोअस्सर और बेमिसाल ज़रीया है, इस की जलालत-ए-शान को ज़ाहिर करने के लिए उस की क़सम खाई, ताकि इस क़ुरआन-ए-करीम के मानने वाले क़यामत तक हिक्मत-ओ-दानिश के कारवां की क़ियादत करते रहें।

इस के हुसूल के लिए पैहम जद्द-ओ-जहद से उकता ना जाएं और दुनिया के गोशा गोशा को उस की रोशनी से मुनव्वर करने के लिए अपनी हर इम्कानी कोशिश करें। सिर्फ़ क़लम की क़सम खाकर उस की इज़्ज़त अफ़्ज़ाई नहीं की गई, बल्कि और जो कुछ वो लिखते हैं फ़रमाकर इल्म के इन जवाहर पारों की भी क़सम खाई गई है, जो नोक़े क़लम से सफ़ा क़िरतास की ज़ीनत बनते हैं, इस तरह उन की शान को भी दोबाला कर दिया।