क़ियामत बरहक़ है

वो होकर रहने वाली, क्या है वो होकर रहने वाली और ऐ मुख़ातब तुम क्या समझो वो होकर रहने वाली क्या है?। झुटलाया समूद और आद ने टकराकर पाश पाश करने वाली को। (surah hakka: १ता४)

इससे मुराद क्यामत है। क़ियामत को अल हक़्क़ा कहने की मुतअद्दिद वजूहात हैं, या तो इसलिए कि इसका पाया जाना एक मुस्लिमा सदाक़त और अटल हक़ीक़त है, जिस में क़तअन कोई शक नहीं, या इसलिए कि इसमें तमाम तसफ़ीया-ए-तलब उमूर की हक़ीक़त आश्कारा हो जाएगी, या इसलिए कि उस रोज़ सज़ा‍ ओ‍ जज़ा का तहक़्क़ुक़ होगा।

जब अहल अरब किसी अहम चीज़ का ज़िक्र करना चाहते हैं तो बसाऔक़ात मुख़ातब से कुछ सवाल पूछते हैं, ताकि वो होशियार हो जाये और पूरे ध्यान से बात को सुने (मज़हरी) ये सवाल क़ियामत की होलनाकी का तसव्वुर ज़हन नशीन कराने के लिए पूछा जा रहा है कि क्यामत इतनी होलनाक और ख़ौफ़नाक होगी कि तुम्हारी अक़्लें उसकी होलनाकी को समझने से बिलकुल क़ासिर हैं। ये उन की रसाई से मावरा है।

ये बताने से पहले कि जब ये होकर रहने वाली है बरपा होगी, उस वक़्त क्या हालात होंगे, मुख़्तलिफ़ अक़्वाम के साथ क्या बरताव किया जाएगा, इस अमर की तरफ़ इशारा किया कि क़ियामत पर ईमान लाना अबदी फ़लाह के लिए एक बुनियादी हैसियत रखता है। इंसान की इस्लाह कादार-ओ-मदार उस को सिदक़ दिल से मानने पर है, जो इस पर ईमान रखते हैं, वो अल्लाह तआला की नाफ़रमानी से बाज़ आ जाते हैं, उसकी याद में बड़े शौक़ से महव रहते हैं। और जो क़ियामत पर ईमान नहीं रखते, जिन के नज़दीक क़ब्र का तारीक और ख़ामोश गढ़ा कारवाँ हयात की आख़िरी मंज़िल है, वो क़दम क़दम पर फिसलते हैं, हर मोड़ पर लपकते हैं, नफ्स-ए-अम्मारा को ख़ुश करने के लिए अल्लाह तआला की क़ायम की हुई हदों को तोड़ते हैं, जिसका नतीजा ख़ुदा का ग़ज़ब और इसका अंजाम मुकम्मल तबाही है।