क़ुरान से नसीहत पकड्ना बहूत‌ आसान

और बेशक हम ने आसान करदिया है क़ुरान को नसीहत पकड्ने के लिए, पस है कोई नसीहत क़बूल करने वाला। (सूरा अल क़मर।१७)

इस का ये मत्लब हरगिज़ नहीं कि क़ुरान एक आसान किताब है, हर फ़र्द इस के इस्रार‍ ओ‍ रुमूज़ तक रसाई हासिल कर सकता है। आयत में कोई एसा शब्द‌ नहीं, जिस का ये मायना हो कि क़ुरान आसान है, बल्कि अल्लाह ताला का इरशाद है कि जो शख़्स नसीहत क़बूल करने और हिदायत पाने के लिए क़ुरान-ए-करीम की तरफ़ रुजू करता है, हम इस के लिए इस किताब मुक़द्दस को आसान कर देते हैं, इस की फ़हम को नूर फ़िरासत से रोशन कर देते हैं, इस के ज़हन को जिला और इस के फ़िक्र को बालिग़नज़री बख़श देते हैं।
ऊरोस ए मायना अल्फ़ाज़ का निक़ाब ख़ुद उठा देती है, लेकिन जो हिदायत पज़ीरी के लिए उस की तरफ़ मुतवज्जा नहीं होता, उस को सही समझ से महरूम कर दिया जाता है। वो सर पटख़ पटख़ कर रह जाता है और क़ुरान के अल्फ़ाज़ इस से गुफ़्तगु ही नहीं करते।

इस का एक और मफ़हूम भी ब्यान किया गया है कि समझाने के दो तरीक़े हैं, एक ये कि मुज्रिम को इस के जुर्म की सज़ा दी जाए, क़ातिल को तख़्तादार पर लट्का दिया जाए। इस वक़्त वो समझ जाता है कि इस ने बुरा काम किया था, जिस की सज़ा में आज इस के गले में फांसी का फंदा डाला जा रहा है। समझ तो इंसान इस तरह जाता है और ख़ूब समझ जाता है, लेकिन समझने और समझाने का ये अंदाज़ बड़ा सख़्त और तल्ख़ है और समझने वाले को इस से कोई फ़ायदा नहीं पहुंचता।