1992 में मुंबई में फ़सादाद भड़काने वाली एक रजिस्टर्ड जमात थी, जिस में हज़ारों अफ़राद मारे गए थे, करोड़ों रूपियों का नुक़्सान हुआ था, लेकिन इस पर दहश्तगर्दी का कोई इल्ज़ाम नहीं लगा। 2002 में गुजरात में नरेंद्र मोदी की हुकूमत में मुसल्मानों का क़त्ल-ए-आम हुआ, मुस्लमानों की मईशत तबाह-ओ-बर्बाद की गई। इन दरिंदों को ना तो कम्सिन बच्चों पर तरस आया और ना ही ख्वातीन पर रहम आया, लेकिन इन हमला आवरों को कभी दहश्तगर्द नहीं कहा गया, बल्कि एस आई टी ने नरेंद्र मोदी और कई दीगर अफ़राद को क्लीन चिट दे दी।
2007 में मक्का मस्जिद और दरगाह अज्मेर शरीफ़ में बम धमाके हुए। 2008 में मालीगाँव में धमाके हुए, जिस में सेंक्ड़ों लोगों की जानें चली गईं। इन सब के ताने बाने विश्वा हिन्दू परिषद, बजरंग दल और दीगर हिन्दू तंज़ीमों से मिल्ते हैं, लेकिन उन पर दहश्तगर्दी का इल्ज़ाम नहीं लगा। मगर जब इन दहश्त गर्दाना कार्यवाईयों से मुतास्सिर होकर मुसल्मान अपने दिफ़ा के लिए निकलते हैं तो उन को क़ानूनी शिकंजे में जकड़ लिया जाता है और उन के ख़िलाफ़ संगीन केस बूक किए जाते हैं, ताकि उन के अंदर दिफ़ा का हौसला भी बाक़ी ना रहे और कोई उन्हें क़त्ल करने आए तो ख़ामोशी से अपनी और अपने अहल-ए-ख़ाना की गर्दनें झुका दें। दरअसल मुजरिमों को खुली छूट दे दी जाती है, इसी वजह से वो जो चाहते हैं कर गुज़रते हैं।
हिंदूस्तान में शिद्दत पसंद-ओफ़िर्का परस्त अनासिर रोज़ बरोज़ अपनी जड़ों को वसीअ और मज्बूत करने में काम्याब हो रहे हैं, जिस से हिंदूस्तान का सेक्युलर ढांचा कम्ज़ोर होता जा रहा है। इन हालात में अपने वतन-ए-अज़ीज़ से मुहब्बत और वाबस्तगी का तक़ाज़ा है कि जिस मुल्क में हम रहते हैं, इस सरज़मीन को फ़ित्ना-ओ-फ़साद, ज़ुलम-ओ-ज़्यादती, नफ़रत-ओ-अदावत, क़तल-ओ-ख़ून, तास्सुब और जांबदारी से महफ़ूज़ रखें और अपने मुल्क में अमन-ओ-सलामती, प्यार-ओ-मुहब्बत, बका ए बाहम और मज़हबी रवादारी की फ़िज़ा-ए-को हमवार रखते हुए दीगर ममालिक में अपने मलिक का नाम बुलंद करें।
वतन से मुहब्बत एक फ़ित्रीओतबई चीज़ है। नबी अकरम स.व. हिज्रत के मौक़ा पर जब ग़ार ए सोर से मदीना की तरफ रवाना हुए तो मक्का मुकर्रमा पर हसरत भरी निगाह डाली और इरशाद फ़रमाया ए मक्का! तो मुझे तमाम मुक़ामात से ज़्यादा अज़ीज़ है, मगर क्या करूं तेरे बाशिंदे मुझे यहां रहने नहीं देते।
नबी अकरम स.व. के आबाई वतन मक्का मुकर्रमा में जब ज़ुल्म-ओ-ज़्यादती से नबरुद आज्मा बाहमी इत्तिहाद क़ायम हुआ और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ हलफ़ उलजूजुल के नाम से मौसूम मुआहिदा तय पाया तो नबी अकरम स.व. ने जोश-ओ-ख़रोश से इस में हिस्सा लिया। मुआहिदा ये था कि अगर मक्का में किसी पर ज़ुल्म हो तो हम उस की मदद को दोड़ेंगे और ज़ालिम को मक्का में रहने नहीं दिया जाएगा। बिअसत के बाद भी नबी अकरम स.व. फ़रमाया करते मेने ये हलफ़ उठाया था। अगर आज भी कोई मुझे उस की दहाई दे तो में इस की ज़रूर मदद करूंगा और क़ीमती सुर्ख़ ऊंटों की एक क़तार के इवज़ भी इस फ़रीज़े से दस्तबरदार होने आमादा ना हूँगा। (इबन जोज़ी: अल्वफा)
आज हिंदूस्तान में मुस्लमानों ने हर रियासत-ओ-शहर में अपने सयासी शऊर का सबूत दिया हे और उन्हों ने मुख़्तसर अर्सा में अपने वजूद को मन्वा लिया हे। कोई हुकूमत मुस्लमानों की ताईद-ओ-हिमायत के बगेर क़ायम नहीं होसकती। हर पार्टी मुसल्मानों को अपनी तरफ़ राग़िब और क़रीब करने की फ़िक्र में हे, लेकिन इस सयासी शऊर के साथ मुसल्मानों को आज इक़दाम, ख़ुद एतिमादी और पेशक़दमी की ज़रूरत है। एहसास कमतरी ने हमें ख़ुद एतिमादी जैसी अज़ीम नेमत से महरूम कर दिया है। हम अपनी इस्लामी तहज़ीब-ओ-शनाख़्त की हिफ़ाज़त ओ सियानत की ख़ातिर गेर मुस्लिम तहज़ीब से दूर रहते हैं। इन से मेल मिलाप, ताल्लुक़ात, रवादारी, ग़मख़्वारी, हुस्न-ए-सुलूक, तीमारदारी, मुआमलात वग़ैरा में मुहतात रहते हैं। यही एहतियात और दूरी ने मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम ज़हनों में बहुत सी ग़लत फ़हमियों को जन्म दिया है और ये एहतियात और दूरी उस वक़्त इख़तियार की जाती है, जब आदमी अपने आप में किसी किस्म की कमी, कम्जोरि और नुक़्स महसूस करता हे और जब इस को अपनी ज़ात पर यक़ीन, अपनी तहज़ीब पर इतमीनान और अपने नफ़स में इस्लामीयत का ग़लबा महसूस करता हे तो वो किसी भी मलिक और किसी भी मुक़ाम पर हो, दूसरी तहज़ीबों से मुतास्सिर हुए बगै़र अपनी तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के असरात को दूसरों के क़ल्ब-ओ-दिमाग़ में नक़्श कर देता हे।
इस्लाम, ग़ैर मुस्लिमीन के साथ अदल-ओ-इंसाफ़ और नेक बरताउ से मना नहीं करता, बल्कि जहां बंदों के आपसी ताल्लुक़ात और उन के दरमयान सिला रहमी और हुस्न-ए-सुलूक का ताल्लुक़ हे तो क़ुरआन मजीद ने मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम की तफ़रीक़ नहीं रखी, बल्कि मुत्लक़ फ़रमाया तुम अल्लाह की इबादत करो, इस के साथ किसी चीज़ को शरीक मत करो और वालदैन के साथ अच्छा सुलूक करो और रिश्तेदारों के साथ भी यतीमों के साथ भी और गुरबा ओ- मसाकीन के साथ भी और क़रीब वाले और दूर वाले पड़ोसी के साथ भी, हम नशीन के साथ भी और राहगीर-ओ-मुसाफ़िर के साथ भी, तुम्हारे ग़ुलाम-ओ-बांदियों के साथ भी। यक़ीनन अल्लाह ताला एसे शख़्स को पसंद नहीं फ़रमाता जो अपने आप को बड़ा समझता हो और फ़ख़र ओ गुरूर करता हो। (सूरत अलनिसा।३६)
नबी अकरम स.व. गेर मुस्लिमीन के साथ मुलाक़ात करते, मुसाफ़ा करते, ख़ैरीयत दरयाफ़त करते, उन की दावतों को क़बूल फ़रमाते, उन की मेहमान नवाज़ी फ़रमाते और उन की इयादत करते। इन के घर में उन के बर्तनों में तनावुल फ़रमाते। हमें भी चाहीए कि हम अपने दीन मज़हब पर सख़्ती के साथ कारबन्द रहते हुए अपने तशख़्ख़ुस-ओ-इमतियाज़ को बरक़रार रखते हुए गेर मुस्लिम बिरादरान वतन-ओ-हमसाया पड़ोसीयों के साथ अपने ताल्लुक़ात उस्तुवार रखें। एक दूसरे के क़रीब हों और ज़ुल्म-ओ-सितम, शर-ओ-फ़साद, फ़ित्ना-ओ-शर अंगेज़ी और बदअमनी के ख़िलाफ़ मुत्तहीदा तौर पर जद्द-ओ-जहद करें।
हिज्रत दरहक़ीक़त नबी अकरम स.व. के लिए इंतिहाई नाज़ुक-ओ-संगीन मौक़ा था। थोड़ी सी ग़फ्लत बुरे नताइज का पेशखेमा हो सकती थी। एसे वक़्त नबी अकरम स.व. ने गेरमामूली एहतियात और बेहतरीन हिक्मत-ए-अमली इख़तियार की। इस सफ़र हिज्रत में अहम पहलू ये भी था कि ग़ैर मुस्लिम जान के दुश्मन होने के बावजूद नबी अकरम स.व. ने मदीना मुनव्वरा के रास्ता में अपने साथ रहनुमाई के लिए अबद उल्लाह बिन उरैकित को मुंतख़ब किया था। वो एक ग़ैर मुस्लिम थे, जो उस वक़्त तक मुसल्मान नहीं हुए थे, लेकिन निहायत बाएतिमाद और काबिल-ए-भरोसा थे। सन् २ हिज्री में जंग बदर में जब मुसल्मानों को फ़तह हासिल हुई तो अहल मक्का ने दुबारा एक वफ़द हब्शा को रवाना किया, ताकि नजाशी के पास से मुस्लमानों को वापिस लाकर तकलीफें दी जाएं।। नबी अकरम स.व. को इत्तिला हुई तो आप ने अमर बिन उमैया ज़मुरी को अपना सफ़ीर बनाकर नजाशी के पास भेजा, ताकि वो मुसल्मानों की सिफ़ारिश करें और उन की हिफ़ाज़त के लिए हुक्मराँ को आमादा कर सकें। हालाँकि अमरो बिन अमय अलज़मरी उस वक़्त तक मुसल्मान नहीं हुए थे।
सीरत तय्यबा के ये ताबिंदा नुक़ूश हिंदूस्तानी मुस्लमानों की रहनुमाई करते हें और उन्हें हिम्मत-ओ-हौसला अता करते हें कि वो हिंदूस्तान जैसे जम्हूरी मुल्क में सेक्युलर बिरादरान वतन के साथ मिल कर विश्वा हिन्दू परिषद, बजरंग दल, सनातन संस्था, श्री राम सेना, धर्म शक्ति सेना, अभीनो भारत, हिन्दू जन जागरण समीती के नापाक अज़ाइम के ख़िलाफ़ मुशतर्का जद्द-ओ-जहद करें, ताकि अपने मुल़्क-ओ-वतन को नफ़रत-ओ-अदावत के कैंसर से नजात दिला सकें और आने वाली नसल की हिफ़ाज़त का सामान करसकें। मख़फ़ी मबाद कि इस्लाम ग़ैर मुस्लिमीन के साथ इस दर्जा कलबी ताल्लुक़ से मना करता है, जिस में मुसल्मान उन के क़रीब होकर उन की तहज़ीब, रहन सहन, तर्ज़ मुआशरत और मिज़ाज को क़बूल करलीं। अपने तशख़्ख़ुस को बरक़रार रखते हुए उन के साथ ज़िंदगी गुज़ारने में शरण कोई क़बाहत नहीं है।