ग़ज़ल के महान शाइर फ़िराक़ गोरखपुरी की सालगिरह

रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त 1916 को हुआ था. उर्दू भाषा के बहु-प्रसिद्ध रचनाकार फ़िराक़ की शिक्षा अरबी, फ़ारसी और अंग्रेज़ी में हुई. कला स्नातक में चौथा स्थान प्राप्त करने के बाद वो ICS चुने गए. राजनितिक गतिविधियाँ जब देश में तेज़ हुईं और स्वराज आन्दोलन शुरू हुआ तो वो नौकरी छोड़ आन्दोलन में शामिल हो गए. जेल गए, उसके बाद जब वापिस आये तो जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ़्तर में अवर-सचिव नियुक्त करवा दिया. नेहरु जब यूरोप गए तो उन्होंने वो पद छोड़ दिया. उर्दू शाइरी में महारत हासिल कर चुके फ़िराक़ ने ढेरों ख़ूबसूरत नज्में और ग़ज़लें कही. उनके बारे में बने विकिपीडिया पेज पर ये कहा गया है “उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बँधा रहा है जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं. नजीर अकबराबादी, इल्ताफ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस रिवायत को तोड़ा है, उनमें एक प्रमुख नाम फिराक गोरखपुरी का भी है. फिराक ने परंपरागत भावबोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहाँ सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है. दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है. फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन १९६८ में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था”
3 मार्च 1982 को उनका इंतिक़ाल हो गया. उनकी एक ग़ज़ल आप सब के लिए…

सितारों से उलझता जा रहा हूँ
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ

तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ
जहाँ को भी समझा रहा हूँ

यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमाँ ये है कि धोखे खा रहा हूँ

अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट
ख़बर दो हुस्न को मैं आ रहा हूँ

हदें हुस्न-ओ-इश्क़ की मिलाकर
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ

ख़बर है तुझको ऐ ज़ब्त-ए-मुहब्बत
तेरे हाथों में लुटाता जा रहा हूँ

असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी कराता जा रहा हूँ

भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ

तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ

जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ

मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ

ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
“फ़िराक़” अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ