ज़हद की हक़ीक़त

हज़रत सुफ़ियान सूरी रह० से मनक़ूल है कि उन्होंने फ़रमाया दुनिया में ज़हद इसका नाम नहीं है कि मोटे छोटे और सख़्त कपड़े पहन लिए जाएं और रूखा सूखा और बदमज़ा खाना खाया जाये, बल्कि दुनिया से ज़हद इख्तेयार करना हक़ीक़त में आरजुओं और उम्मीदों की कमी का नाम है। (सुरह अल निशा)

मज़कूरा बाला आरिफ़ाना क़ौल का मतलब ये है कि ज़हद दुनिया से बेरगबती-ओ-बेएतिनाई की इस कैफ़ीयत का नाम है, जो इंसानी क़ल्ब पर इस तरह तारी हो कि वो (क़ल्ब) दुनिया से बेज़ार और आख़िरत की तरफ़ राग़िब-ओ-मुतवज्जा रहे।

गोया ज़हद का मदार इस बात पर नहीं है कि इंसान का क़ालिब यानी जिस्म व दुनिया की जायज़-ओ-मुबाह चीज़ों से फ़ायदा उठाता है या नहीं, क्योंकि हक़ीक़त के ऐतबार से इस (ज़हद) के मुआमले में ये दोनों बराबर हो‍। यानी एक शख़्स जिस्मानी तौर पर ख़ुश पोशाक और ख़ुश खुराक होने के बावजूद कलबी तौर पर हमावक्त आख़िरत की तरफ़ मुतवज्जा-ओ-राग़िब रह सकता है और एक शख़्स जिस्मानी तौर पर ख़ुश पोशाकी-ओ-ख़ुश खुराकी से बेज़ार रहते हुए भी कलबी तौर पर आख़िरत की तरफ़ ज़्यादा मुतवज्जा-ओ-राग़िब नहीं रह सकता।

अगरचे लिबास की बेहैसियती-ओ-सादगी और खाने की बदमज़गी, सुलूक-ओ-तरीक़त की राह में बंदे की इस्तेक़ामत-ओ-उस्तिवारी पर बहुत ज़्यादा असरअंदाज़ होती है। हासिल ये कि जो सालिक जिस्मानी तौर पर तो दुनिया से इजतिनाब करे, लेकिन इसके दिल में दुनिया की मुहब्बत जागज़ीं हो तो ये चीज़ इसके लिए निहायत मोहलिक और तबाहकुन है।

इसके बरख़िलाफ़ अगर वो जिस्मानी तौर पर तो दुनिया की जायज़-ओ-मुबाह नेअमतों और लज़्ज़तों से फ़ायदा उठाए, मगर इसका दिल दुनिया की मुहब्बत से ख़ाली और आख़िरत की तरफ़ मुतवज्जा हो तो ये इसके हक़ में बहुत बेहतर है।