ज़ात वाहिद पर एतेमाद क़वी हो

हज़रत अबूहुरैरा रज़ी० से रिवायत है कि रसूल करीम स०अ०व० ने फ़रमाया क़वी मुसलमान ज़ईफ़ मुसलमान से बेहतर और ख़ुदा के नज़दीक ज़्यादा पसंदीदा है (यानी जो मुसलमान ख़ुदा की ज़ात-ओ-सिफ़ात के तईं ईमान‍ ओ‍ एतेमाद में मज़बूत होता है, इस पर पुख़्तगी के साथ तवक्कुल‍ ओ‍ एतेमाद रखता है, हर हालत में नेकियां-ओ-भलाईयां इसका मक़सद होते हैं और ख़ुदा की राह में जिहाद-ओ-ईसार करता है।

या ये कि जो मुसलमान लोगों की सोहबत-ओ-हमनशीनी और उनकी तरफ़ से पेश आने वाली ईज़ा-ओ-तकलीफ़ पर सब्र करता है, मख़लूक़ ख़ुदा की हिदायत के लिए कोशिश करता है और तक़रीर-ओ-तहरीर और दरस-ओ-तालीम के ज़रीया ख़ैर-ओ-भलाई फैलाने में मसरूफ़ रहता है, वो उस मुसलमान से कहीं ज़्यादा बेहतर और ख़ुदा के नज़दीक कहीं ज़्यादा महबूब-ओ-पसंदीदा है,

जो इन सिफ़ात में इस का हमपल्ला नहीं होता) और हर मुसलमान (ख़ाह वो क़वी हो या ज़ईफ़) अपने अंदर नेकी-ओ-भलाई रखता है (यानी कोई मुसलमान नेक सिफ़ात से ख़ाली नहीं होता, हर शख़्स में कोई ना कोई ख़ूबी ज़रूर होती है, क्योंकि तमाम नेकियों और भलाइयों का असल सरचश्मा बुनियादी ईमान है और बुनियादी ईमान हर मुसलमान में होता है)

जो चीज़ तुम्हें (दीन-ओ-आख़िरत के ऐतबार से) नफ़ा पहुंचाने वाली हो, उसकी हिर्स रखो, अल्लाह तआला से (नेक अमल करने की) मदद-ओ-तौफ़ीक़ तलब करो और इस (तलब मदद-ओ-तौफ़ीक़) से आजिज़ ना हो (क्योंकि अल्लाह तआला इस पर पूरी तरह क़ादिर है कि तुम्हें अपनी इताअत-ओ-इबादत की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए, बशर्ते कि तुम उसकी इस्तेआनत पर सीधी तरह क़ायम रहो।

बाअज़ हज़रात ने इसका मतलब ये बयान किया है कि तुम उस चीज़ पर अमल करने से आजिज़ ना रहो, जिसका तुम्हें हुक्म दिया गया है और उसको तर्क ना करो)। नीज़ अगर तुम्हें (दीन-ओ-दुनिया) की कोई मुसीबत-ओ-आफ़त पहुंचे तो यूं ना कहो अगर मैं इस तरह करता तो ऐसा होता (बल्कि ज़बान ए क़ौल या ज़बान-ए-हाल से) ये कहो कि अल्लाह तआला ने यही मुक़द्दर किया था (मुस्लिम)