फ़िक्र के घोड़े मत दौडाओ

क्या इंसान ये ख़्याल करता है कि हम हरगिज़ जमा ना करेंगे उसकी हड्डियों को। (सूरुल क़ियामा।३)
हर वो इंसान जो क़ियामत पर यक़ीन नहीं रखता, इसी किस्म के वसवसों में फंसा रहता है।

वो जब ये सोचता है कि लोगों को मरे हुए सैकड़ों और हज़ारों साल गुज़र चुके हैं, उनकी क़ब्रों के निशान तक नापैद हैं, उनकी हड्डियां गल कर मिट्टी में मिल गईं और इस मिट्टी के ज़र्रों को हवा के झोंके सैकडों बार उलट पलट करचुके और कहीं का कहीं उड़ाकर फेंक आये। लिहाज़ा दश्त-ओ-जबल में बिखरे हुए इन ज़र्रों का इकट्ठा हो जाना कैसे बावर करलिया जाये?

फिर कई इंसान तो ऐसे थे जो समुंद्र में ग़र्क़ हुए और मछलियों का निवाला बन गए, कई लाशों को गिद्ध और दूसरे परिंदे चट कर गए, किसी को आग ने जलाकर राख कर दिया, इन सब का जमा होना, फिर इन का पहली हालत में लौट कर वही इंसान बन जाना क़तअन महाल और नामुमकिन है।

वो अपने फ़िक्र के घोड़े दौड़ाते और आख़िर इस नतीजे पर पहुंचते कि क़ियामत का बरपा होना महिज़ बकवास है, उसकी कोई हक़ीक़त नहीं है।

हो सकता है कि यहां इंसान से मुराद कोई ख़ास इंसान हो, जैसे रवायात में मज़कूर है कि इस से अदी बिन रबीया मुराद है। वो एक दिन हुज़ूर (स०अ०व०) के पास आया और क़ियामत के बारे में पूछने लगा।

हुज़ूर (स०अ०व०) ने उस को बताया कि क़ियामत ज़रूर होगी। हर इंसान को उसकी नेकियों की पूरी जज़ा इस दुनिया में नहीं मिल सकती और ना उसको उसकी बदकारियों की पूरी सज़ा यहां मिलती है।

इंसान के बाशऊर और बाइख़तियार होने का ये तक़ाज़ा है कि एसा दिन आए, जब अदल का तराज़ू रखा जाये और हर शख़्स को इस के आमाल की पूरी पूरी जज़ा-ओ-सज़ा मिले। हुज़ूर (स.) ने इबन रबीया को पूरी तरह समझाने की कोशिश की, लेकिन वो कहने लगा: अगर मैं क़ियामत को बरपा होते अपनी आँखों से देख लूं, तब भी में आप की तसदीक़ नहीं करूंगा और ना इस पर ईमान लाव‌ुंगा।