55 साल बाद फिर से एकजुट होकर लेफ्ट कम्युनिस्ट आंदोलन को तेज करने की आवाज उठाई

नई दिल्ली : वर्ष 1964 में चीन और यूएसएसआर, दो प्रमुख कम्युनिस्ट राष्ट्रों के बीच दरार के वैश्विक नतीजों के बाद CPCI दो भाग (CPCI- CPCI एम) में विभाजित हो गए थे। सीपीआई के भीतर कांग्रेस के साथ सहयोग करने की नीति पर खिलाफत शुरू हो गई थी, जिसे पार्टी का एक कट्टरपंथी तबका था पूंजीपति ’मानता था। जब 1964 में सीपीआई (एम) के गठन के लिए पार्टी के 32 सदस्य ’राष्ट्रीय परिषद ‘के बाहर चले गए, तो पार्टी टूट गई। कुछ वर्षों में सीपीआई (एम) सीपीआई के मुकाबले ज्यादा लोकप्रिय हो गए और पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल की सत्ता पर भी काबिज़ हुई।

प्रमुख वामपंथी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) ने अपने विभाजन के 55 साल बाद फिर से एकजुट होकर कम्युनिस्ट आंदोलन को तेज करने की आवाज उठाई है। यह आवाज लोकसभा चुनाव 2019 में निर्जक प्रदर्शन के बाद उठी है। CPCI, जिसने 1962 में सबसे अधिक 29 बार जीती थी, इस बार उसे 2 पर ही संतोषी मिली। वामपंथ का गढ़ माने जाने वाले केरल और पश्चिम बंगाल में पार्टी का खाता तक नहीं खुला।

अब सीपीआई (एम) की बात करें तो 1964 में यह सीपीआई से टूट कर बना रहा था। सीपीआई (एम) ने इस चुनाव में 65 सीटों पर अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे, लेकिन खाते में केवल 3 सीटें ही खुली हैं। इसमें एक केरल और दो तमिलनाडु में है। जबकि केरल में सीपीआई (एम) की अगुवाई वाली एलडीएफ की सरकार है। वर्ष 2014 के चुनावों में पार्टी ने पश्चिम बंगाल में 2 चुनाव जीती थे, लेकिन इस बार वहां शून्य पर आउट हो गयी।

लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद दिल्ली में सीपीआई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई। इसमें यह बात सामने आयी कि TN को छोड़ कांग्रेस, लेफ्ट और उसके गठबंधन के साथी भाजपा के खिलाफ एक मजबूत और विश्वसनीय विकल्प जनता को दे दे सकती है। सीपीआई द्वारा जारी बयान में कहा गया, “वाम की हार पर पर गंभीर विचार-विमर्श करने वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने बताया कि भारत में वामपंथियों को एक अभूतपूर्व चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। वाम के हाशिए पर जाने से देश के भविष्य पर गंभीर असर पड़ेगा। इसलिए CPCI की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने दोहाराया कि कम्युनिस्ट आंदोलन की रणनीतियों और गतिविधियों को एकजुट होकर पुनर्मूल्यांकन और इसे एक बार फिर से शुरू करने की जरूरत है।