सैनिकों को कब पता चलेगा कि मोदी कैसे हैं? जो उन्हें लगातार मूर्खों के रूप में इस्तेमाल करते हैं : पूर्व सैनिक अजय शुक्ला

भारत में सेना के कारनामों या इसकी संरचनात्मक प्रणाली से जुड़े किसी भी विषय को चुनावी मैदान में भुनाने की परंपरा कभी नहीं रही और किसी भी राजनैतिक दल या उसके नेता ने एेसी गुस्ताखी कभी नहीं की जिससे भारतीय फौज के किसी अफसर तक की किसी कार्रवाई को मतदाताओं को प्रभावित करने में प्रयोग किया जा सके परन्तु पिछले कुछ समय से हम यह विसंगति भारतीय राजनीति में देख रहे हैं कि सेना को राजनीतिक हित साधने के लिए प्रयोग करने की कार्रवाइयां न केवल बढ़ रही हैं बल्कि पूरी बेहयाई के साथ सैनिक कार्रवाइयों का राजनीतिकरण किया जा रहा है। वोटों की खातिर एेसा करके हम आग से खेलने का काम कर रहे हैं औऱ अपनी सेना के पूरी तरह अराजनैतिक व गैर राजनीतिक चरित्र को संशय के घेरे में लाने का प्रयास कर रहे हैं। कर्नाटक के चुनावों में जिस तरह भारत के दो पूर्व सेना अध्यक्षाें जनरल थिमैया व फील्ड मार्शल करिअप्पा का नाम घसीटने की कोशिश की गई उसका समर्थन कोई भी लाकतान्त्रिक संगठन नहीं कर सकता। सेना के कमांडर किसी राजनीतिक दल की सरकार द्वारा नियुक्त सिपहसालार नहीं होते बल्कि वे ‘भारत की सरकार’ द्वारा नियुक्त सेनापति होते हैं जिनका राजनीति से किसी प्रकार का कोई लेना–देना नहीं होता।

पूर्व सैनिक अजय शुक्ला ने ट्वीटर से सैनिकों से कहा है की आखिर सैनिकों को कब पता चलेगा कि मोदी कैसे हैं? जो उन्हें लगातार मूर्खों के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होने आगे कहा एक पूर्व सैनिक के रूप में, मैं घृणित हूं, लेकिन आश्चर्यचकित नहीं हूं, @नरेन्द्रमोदी द्वारा कर्नाटक में चुनाव भाषणों में फील्ड मार्शल करिअप्पा और जनरल थिमाय्या से संबंधित तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे हैं।

जनरल करिअप्पा को फील्ड मार्शल की मानद उपाधि से कांग्रेस के प्रधानमन्त्री स्व. राजीव गांधी की सरकार ने ही अलंकृत किया था वह भी जनरल के औहदे से लगभग 28 वर्ष बाद सेवानिवृत्त होने पर यह कार्य इस हकीकत के बावजूद किया गया था कि रिटायर होने के बाद जनरल करिआप्पा राजनीति में सक्रिय रहे थे और 1957 में उन्होंने मुम्बई से देश के तत्कालीन रक्षामन्त्री स्व. वी. के. कृष्णामेनन के खिलाफ लोकसभा चुनाव भी लड़ा था जो वह भारी मतों से हार गये थे। इतना ही नहीं करिअप्पा ने आचार्य कृपलानी के खिलाफ भी चुनाव लड़ा था जो वह हारे और बाद में 1971 में उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी की कांग्रेस के खिलाफ भी मोर्चा खोला जिसमें वह बुरी तरह असफल रहे, मगर उनकी इन राजनैतिक गतिविधियों को कांग्रेस की केन्द्र सरकारों ने कभी भी राष्ट्रीय हितों के खिलाफ नहीं माना और 1986 में उन्हें फील्ड मार्शल के औहदे पर पूरे सैनिक सम्मान के साथ बिठाया। यह कार्य केन्द्र में प्रधानमन्त्री के तौर पर स्व. राजीव गांधी ने किया था। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि फील्ड मार्शल करिअप्पा और जनरल थिमैया कर्नाटक के मूल निवासी थे। उन्हें किसी राज्य के घेरे में बांध कर हम भारतीय सेना की समग्र एकीकृत शक्ति को टुकड़ों में बांटने की गलती कर जाते हैं और खुद के छोटा होने का प्रमाण देते हैं। इसी प्रकार जनरल थिमैया ने चीन के सन्दर्भ में जो विचार व्यक्ति किये थे उनसे राजनीतिक नेतृत्व का सहमत होना जरूरी नहीं था क्योंकि भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली के तहत सेना की विशिष्ट जिम्मेदारी सीमाओं की 24 घंटे सुरक्षा और चौकसी होती है।