‘अर्थव्यवस्था संकट में है, लेकिन पुरानी योजनाओं को ‘मार्केटिंग’ के ज़रिए नए रूप में पेश करना है मोदीनॉमिक्स’

इसमें कोई शक नहीं कि नरेंद्र मोदी के लाजवाब हुनरों जिसको राजनीतिक संदेश के जरिये और चतुर इवेंट मैनेजमेंट से आम चर्चा बदल देना। मोदीनॉमिक्स में सरकारी योजनाअों की चतुर प्रस्तुति का मतलब है भूतकाल की बातें भुला देना और हर घोषणा की ‘मार्केटिंग’ नई शुरुआत के रूप में करना, जहां ब्योरों की बजाय सपनों का ज्यादा महत्व है।

फिर भी सच तो यही है कि अर्थव्यवस्था संकट में भले हो, उसके सामने गंभीर चुनौती तो है। 2014 में मोदी ‘अच्छे दिन’ की लहर पर सवार हुए थे। मोदी लहर का प्रतिरोध करने वाला कोलकाता एकमात्र महानगर था और भाजपा ने 57 में से 37 ‘शहरी’ सीटें जीतीं और 40 फीसदी वोट हासिल किए। तीन साल बाद, भाजपा के मूल गढ़ शहरी भारत में ही सेंध लगने का खतरा है, क्योंकि यह चिंता बढ़ती जा रही है कि 2014 में किए वादे पूरे नहीं जा रहे हैं।

आपको याद होगा कि 2013-14 में जब वे विश्वविद्यालय परिसरों में जाते थे तो युवा किस उत्साह के साथ उन्हें सुनने आते थे। अब स्टार्टअप इंडिया और स्किल इंडिया जैसे कार्यक्रमों की घोषणा पर हताशा की भावना व्यक्त होती है। नौकरियों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर बढ़ती चिंता ने प्रधानमंत्री का आभामंडल घटा दिया है।

यहां तक कि प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया पर उत्साह बढ़ाने के लिए कतार में खड़े रहने वाले बिज़नेस के लोग अब इस प्रोजेक्ट के साथ जुड़ने के ज्यादा उत्सुुक नहीं है, फिर चाहे सार्वजनिक घोषणाओं में इसके विपरीत संकेत मिलते हों।

इसका काफी कुछ कारण नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था में आया फील बैड मूड है। सुप्रीम पॉलिटिकल कम्युनिकेटर के रूप में मोदी में जनचर्चा को ‘धनी’ बनाम ‘गरीब,’ काले धन के खिलाफ ‘युद्ध’ में बदलकर खुद को जोखिम लेने वाले उम्मीद के मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने का करिश्मा है। लेकिन, अब जब अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है और बिज़नेस घट रहा है, तो 2017 के शुरुआत के उत्साह-उम्मीद की जगह दिवाली नज़दीक आने के साथ नकारात्मकता ने ले ली है।

आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों में गिरावट को ‘तकनीकी’ कारणों का नतीजा बताना, जैसा कि अमित शाह ने किया है। यह स्वीकार करने से इनकार करना है कि नोटबंदी ने अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण कड़ियां तोड़ दी हों। इससे खासतौर पर कई छोटे बिज़नेस मुश्किलों और नकदी की कमी का सामना कर रहे हैं। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि ये अस्थायी उतार-चढ़ाव हैं और अर्थव्यवस्था के ‘बुनियादी’ आधार मजबूत हैं। यही सच है कि आर्थिक बहाली के तत्काल कोई संकेत नहीं हैं और अर्थव्यवस्था पर बातें बनाना इस तकलीफ को और बने रहने देना है।

इसके बावजूद यदि भाजपा इस साल गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भारी जीत हासिल करती है तो इससे इस दौर के राजनीतिक संघर्ष की प्रकृति और आर्थिक कारकों और चुनावी नतीजों के बीच संबंध टूटना ही जाहिर होता है।

भारत में ऐसे कई ऐतिहासिक उदाहरण हैं कि चिंता को क्रोध में बदलने में वक्त नहीं लगता। बेहतर होगा कि मोदी सरकार इनकार की मुद्रा से बाहर आए और मानेंे कि नोटबंदी जादू की पुड़िया नहीं थी।। यह अच्छी शुरुआत होगी। लेकिन, उसके लिए प्रधानमंत्री को वह करना होगा, जो उन्होंने करने से इनकार किया है, अपनी गलती मानना।

मुंबई में छोटे और मध्यम उपक्रमों के बिज़नेस लीडर्स के हाल में हुए सम्मेलन में निश्चित ही चिंता का माहौल था। ‘पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी, हमें दोहरा अभिशाप झेलना पड़ा,’ एक चिंतित आंत्रप्रेन्योर ने कहा। मैंने पूछा कि ऐसे में यदि आज चुनाव हो जाए तो आप किसे वोट देंगे? कमजोर-सी आवाज में उन्होंने कहा, ‘मेरा ख्याल है नरेंद्र मोदी और भाजपा, क्या हमारे सामने और कोई विकल्प है?’ यह बातचीत उस विरोधाभास को वर्णित करती है : मोदी से बिज़नेस कम्युनिटी और मध्य वर्ग में खासतौर पर मोहभंग हुआ है इसके जीते-जागते सबूत है लेकिन, इस बात के संकेत नहीं है कि यह मोहभंग गुस्से में बदल रहा है।

(राजदीप सरदेसाई, वरिष्ठपत्रकार द्वारा लिखित लेख )