नजरिया: सोशल मीडिया जहमत या राहत

1974 में पहली बार एक कंप्यूटर से दुसरे कंप्यूटर पर ई मेल भेजने की टेक्नोलॉजी की शुरुआत हुई, फिर 1990 में www वर्ल्ड वाइड वेब की इजाद के साथ तो एक क्रांति ही आ गया। हमारे देश में कंप्यूटर तो राजीव गांधी के दौर में ही आ चूका था लेकिन इंटरनेट से हम सबका परिचय 1995 में हुआ जब विदेश संचार निगम लिमिटेड ने इंटरनेट सर्वर शुरू कीं।

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उसके बाद हम लोग भी इस काबिल हो गए कि ईमेल के जरिये संदेश भेजें या चैट करें। याहू, हॉट मेल और गूगल मेल ने हमाररी जिन्दी बदल दी। 2004 में फेसबुक ने अपनी सर्विस शुरू की और फिर हम इस काबिल हो गए कि ईमेल कि किताबी चेहरों के दीदार घर बैठे कर सकें। 2006 में ट्विटर ने दुनिया में शोर मचा दिया।

2009 में व्हाट्सएप ने अपनी जलवा बिखेरी। 6 अक्टूबर 2010 को इन्स्टाग्राम आ गया, लेकिन इन सब सुविधाओं में असली रंग 2008 में एंडरोएड फोन और फिर 2014 में स्मार्ट फोन ने भरे अब तो यह हालत है कि गली गली में स्मार्ट फोन लिए हुए घरेलू नौकरें और फुटपाथ पर खुंचा लगाने वाले भी मिल जायेंगे।

इसी वजह से अब हमरे मोबाइल पर सुबह से साम तक कुल मिलाकर चार सो मैसेज तो आ ही जाते हैं कि कम से कम दुनिया में इतने लोग तो हैं जिन को हमारा नाम याद है और जो हमको इस काबिल समझते हैं कि सलाम भेजें, नमस्ते करें, सलामत और खुश रहने के संदेश भेजें।

मुझे लगता है सबको अच्छा ही लगता होगा, मगर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सोशल मीडिया के जरिये दावत तबलीग का कम करने को अपना कर्तव्य समझते हैं, हर सुबह हमारी इस्लाह के लिए कुछ दीनी बातें हम को जरूर भेज देते हैं, कुछ लोग मुसलमानों की तारीख याद दिलाते रहते हैं, कुछ लोग किसी पर ज़ुल्म धाए जाने वाले विड्योज़ यह कहकर फोरवर्ड करते हैं कि उनको इतना फोरवर्ड करो कि यह शख्स जल्द पकड़ा जाए। खोए हुए बच्चों के प्रति हमदर्दी ने आज कितने ही लोगों की जान लेली। सोशल मीडया की अफवाहों की वजह से कितने लोगों को वहशी भीड़ ने पीट पीटकर मार डाला।