मीरा कुमार का मोहनदास कनेक्शन

मीरा कुमार ने अपना नामांकन दर्ज कराया। कोविंद के नामांकन-पत्र दाखिल करने वक्त दर्जनों मुख्यमंत्री और दलों के मुखिया मौजूद थे। मीरा के साथ केवल मनमोहन थे। मनमोहन के साथ साझा तस्वीर में स्थाई खामोशी व्याप्त थी। मोदी की तरह कोई बजने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन कभी रहे नहीं। मनमोहन कभी बोल नहीं पाए और मोदी कभी चुप नहीं रह पाए। मोदी की मुखरता और मनमोहन के मौन के बीच मीरा विपक्ष की उम्मीदवार होकर रह गयी।

बिहार की यह बेटी बिहार के लिए बला बन गयी है। बिहार में महागठबंधन की सरकार इस बला को टालने की भरपूर कोशिश कर रही है। मीरा बला की सियासत हो गयी है। लालू को इस बिहार की बेटी के लिए गहरी चिंता है। नीतीश को भी चिंता है कि बिहार की इस बेटी के हारने की। नीतीश कहते हैं कि अगर हार तय है तो मैदान में उतारा ही क्यों गया है। लालू को बिहार की बेटी को जिताने की चिंता है तो नीतीश को इनके न जीतने की?

बिहार के उप-मुख्यमंत्री ने अपने दिल की बात कार्यक्रम में जो तेजस्वी बातें की हैं, उससे जदयू की आंखों का चौंधिया जाना स्वाभाविक है। बिहार की इस बेटी को अनावश्यक ही बयानों की सौगात मिल रही है। ऐसा दिख रहा है कि यह बेटी महागठबंधन के महल को कहीं जमींदोज ना कर दे?

मीरा कुमार कोई वंचित घर की नहीं, बल्कि बड़े घर की बेटी हंै। मीरा कोई जगुआ चमार की नहीं, बल्कि पूर्व रक्षामंत्री, उप-प्रधानमंत्री एवं स्वतंत्रता सेनानी बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं। यह अलग बात है कि मीरा कुमार को सम्पूनार्नंद द्वारा किया गया बाबूजी का अपमान याद नहीं है। इनसे बड़ी बात और बड़े व्यवहार की अपेक्षा स्वाभाविक है। मीरा कुमार ने महात्मा के दरबार साबरमती आश्रम से अपने चुनाव अभियान की शुरूआत की है।

मीरा कुमार का मोहनदास से लगाव के अपने मायने हैं। मीरा ने आंबेडकर की दीक्षा-भूमि से चुनाव की शुरूआत नहीं की है और वह करती भी नहीं। बाबू जगजीवन राम भी गांधी के साथ बहुत ही सहज महसूस करते रहे। जगजीवन राम को मैकडोनाल्ड के कम्युनल-अवार्ड यानी उस सांप्रदायिक-पंचाट से भी कोई लगाव नहीं था जिसने दलितों के लिए पृथक-मतदान की वकालत की थी। जगजीवन राम उस पंचाट को पूना-पैक्ट में कन्वर्ट करने के हिमायती रहे। जगजीवन बाबू को बड़ी चिंता रही होगी कि किस प्रकार बाबासाहेब बापू के सामने झुकें और पूना-पैक्ट हो जाय।

जगजीवन राम बाबा साहेब को रोकने के कांग्रेस के औजार ही थे पर वे औजार चल नहीं पाए। जगजीवन राम का राम कभी मरा नहीं। रामनामी संस्कृति के प्रति उनका मोह बना रहा। पेरियार ने कहा था कि भगवन जब तक जिन्दा हंै तबतक दलित मरता रहेगा। भगवन से सरोकार रखने वाले दलितों की सरकार नहीं बनने दे सकते हैं। सियासत राममय सब जग जानी ….जगजीवन राम ने दलितों को ब्राह्मण बनाने का खेल खेला। मंदिरों में प्रवेश, तालाब की तलब को लेकर उन्होंने संघर्ष किया। जगजीवन के लिए मंदिर मूल्यवान थे वे दलितों का अलग मंदिर बनाने के लिए संघर्षरत थे। जगजीवन के संघर्ष के मूल में मनुवादी मंदिर और उनके मूल्य सुरक्षित थे।मीरा कुमार ने कहा कि वह राष्ट्रपति का चुनाव वंचितों के सवाल पर नहीं, बल्कि विचारों के स्तर पर लड़ना चाहती हंै। पर कौन सा विचार है उनका यह स्पष्ट नहीं कर पायी। हालांकि मीरा कुमार की यह सत्य स्वीकृति है कि उनकी चेतना में कही दलित नहीं हंै और पीछे भी नहीं थे। वह कभी दलित-उत्पीड़न पर बोलती भी नहीं। देश की असंख्य बेटियां, खासकर दलितों की बेटियां तबाह हुईं,पर मीरा का मौन कभी टूटा नहीं। यह नैतिक मजबूरी ही रही होगी कि मीरा कुमार ने साबरमती से अपना प्रचार शुरू किया है।

कोविंद तो खाए-पिये अघाए लोगों के हनुमान हैं। वे कोई चमरटोली के हनुमान तो हैं नहीं कि एक अदद बताशे के लिए तरसे। कण-कण में भगवान मानने वाले भी चमरटोली के हनुमान की उपेक्षा कर आगे बढ़ जाते हैं। भाजपा और कांग्रेस के अपने-अपने चमत्कारी हनुमान हैं। देश के दलित इन हनुमानों की पूजा को अभिशप्त हैं। नीतीश और लालू दोनों ही अभिशप्त हैं। दोनों नेता नकली सवालों पर लड़ रहेहैं। इस गेम में न तो यूपी का बेटा जीत रहा है न ही बिहार की बेटी। दोनों विजयी उम्मीदवार हैं। हार रहे हैं तो केवल देश के दलित। मीरा कुमार कोई साबित्री बाई फुले भी नहीं है जो दलित इनकी प्रतिमा बनाये। मीरा कुमार मनुवादी-कोकिला हैं। यह दलित विमर्श की चोंचलेबाजी है। लालू ने जिस तरह समाजवाद के नाम पर चोंचलेबाजी की, उसी तरह बिहार के बेटी को लेकर चोंचलेबाजी कर रहे हैं। नीतीश तो पहले भी भाजपा के नाम पर घुंघरू पहन चुके हैं। इस झंकार में कोई झंझट भी नहीं है। पर लालू तो अपने विचार पर अडिग रहे हैं। अगर दलित के नाम पर किसी भगबतिया देवी को खड़ा करते तो भी बात समझ में आती। मीरा कुमार से ज्यादा पुख्ता उम्मीदवार राबड़ी देवी ही होती। यह भी देखकर अच्छा ही लगता जब सेना के तीनो प्रमुख राबड़ी को सलामी ठोकते। राबड़ी का राष्ट्र के नाम सन्देश सुनते। लालू ने सब गोबर कर दिया। कोविंद से ज्यादा मुखर तो राबड़ी ही रही है। वह बिहार की मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं। बेटी तो ठीक ही हैं पर बीवी भी बुरी नहीं थी।

लालू नीतीश जैसे सठियाये समाजवादी यही कर सकते हैं। इनका दलित विमर्श और संघर्ष भी जर्जर ही है। देश में जो कुछ हो रहा है चाहे वह बहाना कोविंद का हो या मीरा का सब वंचितों के अधिकार को हड़पने का खेल है, आरक्षण को समाप्त करने की चाल है, यथास्थितिवाद को बनाये रखने का उपक्रम है।

  • बाबा विजयेन्द्र