2019 लोकसभा चुनाव अल्पसंख्यकों के लिए अहम क्यों?

इक़बाल रज़ा, कोलकाता: 2019 लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने के साथ ही चुनावी गतिविधियां तेज हो गयी है। इस लोकसभा चुनावों में अल्पसंख्यक मतदाता किसकी झोली भरेंगे? यह बड़ा सवाल है। देश की करीब सौ से ज्यादा सीटों पर इसका असर देखना दिलचस्प होगा।

पूरवर्ती अनुभवों के आधार पर ये ठगा महसूस कर रहे हैं फलस्वरूप इस वक्त किसी भी सियासी पार्टीयों में इन्हे भरोसा नहीं दिखती जो इनके अस्तित्व की रक्षा कर सके! राजनितिक पार्टियां भी इसे वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करती रही और इनका लाभ उठाती रही! वे अब भी अतीत में ही उलझे हुए हैं, भारत में तथाकथित सेक्यूलर पार्टियों को वोट देते हैं, सुरक्षा के नाम पर उनके हाथों ब्लैकमेल होते हैं!

यह विडंम्बना ही कहिए कि आज अल्पसंख्यकों की पहचान या तो तालेबान के नाम से होती है या आतकंवाद के नाम से, और यह सब जान के बुरा लगता है कि आज इस क़ौम को राजनीति ने जितना नुकसान किया है उससे ज्यादा नुकसान उन लोगों ने भी किया है जो इस क़ौम के नेता कहलाते थे! अल्पसंख्यकों को कुछ भी ‘एक्सट्रा स्पेशल’ नहीं चाहिए, उसे भी वही सभी जरूरत की चीज़ें चाहिएं जो उसके जीवन यापन के लिए जरूरी हैं।

वह भी अच्छी नौकरी चाहता है, वह भी अच्छे स्कूलों में पढ़ना चाहता है वह भी देश के लिए नौछावर होना चाहता है! मगर अल्पसंख्यकों को यह जानने की सख़्त ज़रूरत है कि उनका शोषण क्यों होता है और कौन हैं जो उनको सिर्फ़ वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करना चाहते हैं!

काफ़ी हद तक यह बात सही है कि अल्पसंख्यक अतीत के झरोके मे सिमटा हुआ है! लेकिन इसके कई ठोस कारण हैं. भारत में सांप्रदायिक दंगों का भयावह इतिहास रहा है और आज भी अल्पसंख्यक इससे त्रस्त हैं जो 2014 में सत्ता हस्तान्तरण के पश्चात कभी लव जिहाद, गौ-रक्षा, मॉब लिंचिंग आदि अनेक रूपों में टार्गेटेड विक्टिम बनते रहे!

इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में वास्तविक सेक्युलर पार्टियों का वजूद खतरे में है! आज़ादी के 70 साल बाद भी धार्मिक कट्टरता कम होने की जगह बढ़ती जा रही है!

देश में हर आतंकवादी घटना को एक समुदाय विशेष से जोड़कर पूरी क़ौम को टारगेट बनाया जा रहा है और ऐसा लग रहा है कि सारा देश भी पूरा दोष एक समुदाय विशेष के मत्थे जड़ रहा है!

सबसे अफ़सोसनाक यह है कि ऐसा प्रतीत होता है कि देश का पढ़ा-लिखा तब्का भी नकारात्मक नज़रिए से ही सोच रहा है! इसके लिए उनके अंदर बैठी असुरक्षा की भावना के साथ राजनेता भी ज़िम्मेदार हैं

दरअसल अल्पसंख्यक को आज यह नहीं मालूम कि उनकी भारत और इस पूरे क्षेत्र में क्या भूमिका रही है सबसे पहले अल्पसंख्यकों को खुद में विश्वास पैदा करना होगा और ये सोचना बंद करना होगा कि वो अल्पसंख्यक हैं! अल्पसंख्यकों को अपने हक़ के लिए खूद लडना होगा क्योंकि इस देश का हर एक आदमी अपने लिए लड रहा है अल्पसंख्यक आज जिस स्थिति में हैं, उसका ज़िम्मेदार वो खुद हैं, विधायिका में अल्पसंख्यकों की घटती गयी नुमायंदगी इसका उदहारण है!

इस बार अल्पसंख्यकों को इन बातों का ध्यान रखना होगा जो उन्हें विकास, शिक्षा, सुरक्षा, नौकरी, सत्ता में हिस्सेदारी के साथ-साथ उनके अस्तित्व के लिए फिक्रमंद हों उन्हें सपोर्ट करना चाहिए! इस वक्त भारत के संविधान की हिफाजत के साथ-साथ उसके सामाजिक ढांचे को बचाने की बेहद जरूरत है।

लेखक एवं टीकाकार: इक़बाल रज़ा ( राजनीतिक विशेषताओं के जानकार)