आतंकवाद के आरोप में 10 साल जेल में गुज़ारने वाले ‘बेगुनाह कैदी’ अब्दुल वाहिद शेख की दास्तान

मुंबई: फरूस मीडिया ने एक ‘बेगुनाह कैदी’ अब्दुल वाहिद शेख की दास्तान प्रकाशित की है जिनक जुर्म सिर्फ इतना था कि उन्होंने 11 जुलाई 2006 मुंबई बम धमाकों के आरोप में फंसाए गए दूसरे बेगुनाहों के खिलाफ़ झूठी गवाही देने से इंकार कर दिया था।

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गिरफ्तारी के समय वह खरोली मुंबई के एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे और उर्दू में पीएचडी कर रहे थे। लेकिन पुलिस ने उनकी-हंसती खेलती ज़िन्दगी उजाड़ते हुए उन्हें दस साल सलाखों के पीछे रखा। हालाँकि दस साल की सख्त कैद और पीड़ा के बाद उन्हें तो बाइज्ज़त रिहाई तो मिल गई लेकिन अदालत ने उनकी ही तरह बेगुनाह आरोपियों में से पांच को फांसी और सात को उम्र कैद की सजा सुनाई। जबकि उनके खिलाफ भी अब्दुल वाहिद की तरह पुलिस तथाकथित इकबालिया बयान के अलावा कोई सबूत पेश नहीं कर सकी।

यह इकबालिया बयान किस तरह लिए जाते हैं वह रिहा होने वालों के ज़रिए जग ज़ाहिर हो चुके हैं। सख्त पीड़ा के साथ आरोपी के घर वालों को परेशान करना, महिलाओं के साथ बदसलूकी करना और उनके तार भी तमाम झूठे और मनगढ़त मामलों से जोड़ने की धमकियाँ देकर गिरफ्तार आरोपियों को सादे कागज़ पर हस्ताक्षर करने पर मजबूर कर देते हैं।

लेकिन पुलिस अब्दुक वाहिद शेख से तमाम तरह की प्रताड़नाओं के बावजूद कभी सादे कागज़ पर हस्ताक्षर न ले सकी नतीजतन अदालत ने उन्हें बरी कर दिया।

एक बेकसूर देश बदर मुराद करनाज़ की दास्तान ए कैद “गुवांतानामो में पांच साल” के बाद अब्दुल वाहिद शेख की उर्दू किताब “बेगुनाह कैदी” देश में अपने ही मजलूम लोगों पर ढाए गए जुल्म को बयान करती अपनी तरह की पांचवीं किताब है।

इससे पहले हफीज नोमानी की “रूदादे कफ्स”, इफ्तखार गिलानी की “ तिहाड़ में मेरे शब् व रोज़”, कश्मीर की ज़ेनबुल गजाली अंजुम ज़मर्रुद हबीब की “कैदी नंबर 100” और गुजरात के मुफ़्ती अब्दुल कैयूम मंसूरी की “11 साल सलाखों के पीछे” में भी पुलिस और सुरक्षा एजेंसी की कारगुजारियो को सामने ला चुकी है।

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